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________________ (वैर) सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु । (अथर्ववेद, 19/15/6) -सब दिशाएं मेरी मित्र हों। (5) वेरं मझं न केणइ। (आवश्यक सूत्र, वंदित्तु सूत्र) - मेरा किसी से वैर नहीं है। (6) न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित्। (मनुस्मृति-6/47) -इस अनित्य शरीर को लेकर किसी के साथ वैर न करो। (द्वेष-विरोध) (7) न विरुज्झेज केणइ। (सूत्रकृतांग सूत्र-1/11/12) -किसी के साथ विरोध नहीं करना चाहिए। (8) मानो द्विक्षत कश्चन। (अथर्ववेद-12/1/23) -हम किसी से द्वेष न करें। 000 MOणपण. मैत्री करणीय है और वैर-विद्वेष-विरोध त्याज्य हैं। भारतीय संस्कृति के इस शाश्वत कल्याणकारी उद्बोधन को वैदिक व जैन- दोनों धर्मों ने पर्याप्त प्रचारित-प्रसारित किया है और मानवता को विनाश से बचाने का सत्प्रयास किया है। D Zजेन धर्म एवं दिक धर्म की सांस्कृतिक एकता/416
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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