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राम्ररी
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सामाजिक जीवन में देखा गया है कि मध्यस्थ व्यक्ति का सभी आदर करते हैं। परस्पर-विरोधी दल भी उस पर विश्वास व आस्था रखते हैं। इसका कारण यह है कि मध्यस्थ पूर्णत: तटस्थ होता है। वह न किसी के प्रति पक्षपात करता है और न ही विद्वेष । इसी मध्यस्थता को आध्यात्मिक/धार्मिक क्षेत्र में 'समत्व' नाम से अभिहित किया गया है। समत्व भाव से युक्त व्यक्ति की दृष्टि सभी व्यक्तियों, सभी प्राणियों में अपनी जैसी अभिन्न चैतन्य स्वरूप आत्मा को देखती जानती है, उन्हें आत्मीय, परकीय, मित्र या शत्रु के रूप में मानती-समझती नहीं है। इसी समत्व-दृष्टि के विकसित होने पर वीतरागता की या परमयोगी व गीता के स्थितप्रज्ञ की स्थिति प्राप्त होती है। जैन व वैदिक धर्मों में इस समत्व/समभाव को समान रूप से अत्यन्त आदर दिया गया है।
(1) अत्तसमे मन्निज छप्पिकाए।
(दशवकालिक सूत्र-1075) - छहों कायों के (एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक) समस्त जीवों को अपने समान समझो।
तीय खण्ड/417