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सुख-दुःख सांसारिक जीवन के अंग हैं। किन्तु सुख सब को प्रिय है और दुःख नितान्त अप्रिय। ये सुख-दुःख क्या हैं? स्वयंकृत हैं। प्रशस्त भावों से भावी सुखमय जीवन का और अप्रशस्त भावों से दुःखमय जीवन का निर्माण होता है। श्रेष्ठ आत्मा वह होती है जो सुख-दुःख दोनों ही स्थितियों में समभाव से रहती है। न सुख में मदमत्त और न ही दुःख में विषादग्रस्त। ऐसी आत्मा ही परम योगी है। इस विचारधारा को वैदिक व जैन- दोनों धर्मों में समर्थन मिला है।
(1) सव्वेपाणासुहसाया, ढुहपङ्कूिला, अप्पियवहा, पियजीविणो।
(आचारांग सूत्र- 1/2/3) - सभी प्राणियों को सुख अच्छा लगता है, दुःख बुरा, जीवन प्रिय है, मृत्यु अप्रिय।
(2)
दुःखादुद्विजते सर्वः, सर्वस्य सुखमीप्सितम्।
(महाभारत- 12/139/62) - सब जीव सुख चाहते हैं, दुःख से घबराते हैं।
uीय रा3, 413 |
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