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________________ (21) पुण्यो वैपुण्येन कर्मणा पापः पापेनेति। (बृहदारण्यकोपनिषद्-3/2/13) - पुण्य-कर्म से मनुष्य पवित्र और पाप-कर्म से अपवित्र बनता है। (22) कर्मभूमिरियं लोके,इति कृत्वा शुभाशुभम्। शुभैः शुभमवाप्नोति, तथाऽशुभमथान्यथा॥ (महाभारत- 12/192/19) - यह जगत् कर्म-भूमि है। इसमें मनुष्य शुभ कर्मों का शुभ और अशुभ कर्मों का अशुभ फल पाता है। जैसा बोए बीज, वैसा पाए फल- यह कहावत खेती में पूर्णतः चरितार्थ होती है। यही स्थिति कर्मवाद में भी मान्य है। जैसा कर्म रूपी बीज बोएंगे, वैसा ही सुख-दुःख आदि फल प्राप्त होंगे। कर्मवाद वैज्ञानिक कार्यकारण सम्बन्ध से जुड़ा है जिसकी व्याख्या वैदिक व जैन- दोनों धर्मों में एक समान वैचारिक दृष्टि के साथ की गई है। जैन धर्म मेदिक धर्म की सारतिक एमा/412
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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