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________________ 5. आश्रम-व्यवस्था में लचीलापन : वैदिक परम्परा में आश्रम व्यवस्था के अनुरूप मानवजीवन की समग्र चर्या को व्यवस्थित किया गया था। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास- इस क्रम से मानव के लिए आश्रमोचित एक क्रमिक व मर्यादित जीवन-चर्या का पालन करना वहां अनिवार्य माना गया था (द्र. मनुस्मृति- 6/87) | गृहस्थाश्रम की विशेष महत्ता भी मानी जाती थी। इसके विपरीत, जैन परम्परा संसार-विरक्ति को ही अधिक श्रेयस्कर मानती थी। हां, जो व्यक्ति पूर्णतः संसार-विरक्त होने की क्षमता नहीं रखता था, उसके लिए गृहस्थ चर्या उपादेय मानी जाती थी (द्र. उत्तराध्ययन- 9/42-44) किन्तु वैचारिक समन्वय का वातावरण ऐसा निर्मित हुआ कि वैदिक परम्परा में भी आश्रम-व्यवस्था की कठोरता को उदार व शिथिल बनाने की प्रवृत्ति बढी। जाबालोपनिषद् (4) में तथा आचार्य शंकर ने यह स्पष्ट उद्घोषणा की कि संन्यास किसी भी वय में स्वीकारा जा सकता है, बशर्ते विरक्ति के भाव जागृत हों। दूसरी तरफ, जैन परम्परा के पुराणों में चारों आश्रमों की व्यवस्था को मान्यता दी गई (द्रष्टव्यः आ. जिनसेन कृत महापुराण 39/151-1 52)। 6. आस्तिकता का उदार मानदण्ड: वैदिक संस्कृति में आस्तिक व नास्तिक का विभाजन बहुत पुराना है। नास्तिक को निन्दनीय एवं सामाजिक दृष्टि से तिरस्करणीय माना जाता था । वेद-निन्दक को 'नास्तिक' (नास्तिको वेदनिन्दकःमहाभारत-12/168/8, मनुस्मृति- 2/11) कहा जता था। इस परिभाषा में जैन परम्परा 'नास्तिक' की श्रेणी में परिगणित की जाती थी। कालान्तर में इस परिभाषा को लचीला बनाया गया और आत्मा व परलोक आदि के अस्तित्व को स्वीकार करने वालों को प्रथम खण्ड/21
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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