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3. ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं:
वैदिक परम्परा में प्राकृतिक दैवी शक्तियों को सृष्टि का नियमन करने वाली माना जाता था। एक परमदेव (ईश्वर-परमेश्वर) की भी अवधारणा थी जो उक्त सभी शक्तियों का अधिपति था (गीता-1/8,2/18, श्वेताश्वतरोपनिषद्-1/8-1, तैत्तिरीयोपनिषद् 2/8, कठोप. 2/5/15/आदि)।
___ जैन परम्परा सृष्टि को अनादि मानती है और इसका कर्ता किसी को नहीं मानती। वैचारिक समन्वय की दिशा के प्रशस्त होने पर, सांख्य-योग व पूर्वमीमांसा जैसे दर्शनों के माध्यम से सष्टि की अनादिता का प्रतिपादन किया गया और सृष्टि के निर्माण या संचालन में ईश्वर की अनुपयोगिता बताई गई। योगदर्शन में जिस 'ईश्वर' की अवधारणा है (द्र. योगदर्शन-1/24)/, वह जैन परम्परा के वीतराग ईश्वर/ परमेश्वर की अवधारणा से पर्याप्त साम्य रखती है।
4. जाति की अतात्विकता :
वैदिक परम्परा वर्णाश्रम व्यवस्था को प्रमुखता देती थी। व्यवहार में वैदिक धर्म को 'वर्णाश्रम धर्म' भी कहा जाता था। जैन परम्परा में उक्त व्यवस्था को अमान्य किया गया था। जैन परम्परा में श्रेष्ठता का मानदण्ड गुण थे। वह जन्म के आधार पर किसी की श्रेष्ठता या अश्रेष्ठता को नहीं मानती थी, अपितु गुणों के आधार पर मानती थी (द्र. उत्तराध्ययन-25/33)|इसीलिए, जैन आगमों में तप, संयम व अहिंसा आदि सद्गुणों से सम्पन्न व्यक्ति ही श्रेष्ठतम या ब्राह्मण माना गया (द्र. उत्तराध्ययन-25/19-29, 33)।
___ कालान्तर में वैदिक परम्परा में भी उद्घोष किया गया-ईश्वर ने वर्णव्यवस्था का सृजन गुण-कर्म के आधार पर किया है (गीता- 4/13)। महाभारत आदि ग्रन्थों में 'जन्मना जाति' पर आघात करते हुए कहा गया है कि यदि शूद्र जाति में उत्पन्न व्यक्ति में ब्राह्मणोचित गुण है जो वह 'शूद्र' नहीं, ब्राह्मण ही है (द्रष्टव्यः महाभारत- 3/18/23-25)।
जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सास्कृतिक एकता/201