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________________ का प्रवर्तन हुआ। उपनिषत्काल में आत्म-विद्या को प्रमुख देने सम्बन्धी उद्गार प्रकट किये जिनसे उपनिषत्साहित्य भरा-पड़ा है। मुण्डकोपनिषत् (1/1/3-5) में कहा गया कि ऋग्वेद आदि 'अपरा विद्या हैं' किन्तु आत्मविद्या ही ‘परा विद्या है जिससे परमात्म-तत्त्व का बोध होता है। गीता में कहा गया है कि 'वेद' त्रैगुण्य-विषय (भोग-साधनों तक जिनका विषय सीमित है) हैं, किन्तु त्रैगुण्यरहित होना श्रेयस्कर है (द्र. गीता-2/45)। उत कथन वेद' की अपेक्षा ज्ञान-मार्ग की सर्वोत्कृष्टता को प्रतिपादित करते हैं। 2. यज्ञ की अवधारणा में परिष्कार: वैदिक धर्म में यज्ञीय विधि-विधान को प्रमुखता थी। इसमें की जाने वाली पशु-हिंसा को 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' कहकर (वेदोक्त यज्ञ-विधि में होने वाली हिंसा को) हिंसा-दोष से निर्मुक्त बताया जाता था। जैन परम्परा इस हिंसक यज्ञ विधि के पूर्णतः विरुद्ध थी। स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के वातावरण का जब निर्माण हुआ तो वैदिक परम्परा में ही हिंसक यज्ञ के विरोध में स्वर मुखर हो उठे । वैदिक पुराणों एवं महाभारत आदि ग्रन्थों में प्रतिपादित किया गया कि यज्ञ में हिंसा शास्त्र-सम्मत व धर्मसम्मत नहीं है (द्रष्टव्यः महाभारतः 13/91/13-16, मत्स्यपुराण-143/29-3 आदि)। जैन परम्परा में 'द्रव्य यज्ञ' के स्थान पर 'ज्ञान यज्ञ' या आध्यात्मिक यज्ञ (संयम, तप आदि) मान्य था (द्र. उत्तराध्ययन-12/ 42-44), तदनुरूप वैदिक परम्परा के महनीय ग्रन्थ 'गीता' में ज्ञानयज्ञ की श्रेष्ठता उद्घोषित की गई (श्रेयान् द्रव्यमयाद् यज्ञाद ज्ञानयज्ञः, गीता-4/33) | महाभारतकार ने भी स्पष्ट कहा- यज्ञ से भी तप श्रेष्ठ है- तपो यज्ञादपि श्रेष्ठम् (महाभारत-12/79/17)| साथ ही, यह भी कहा कि यज्ञ में पशु-हिंसा मान्य नहीं है (अहिंस्या यज्ञपशवः- महाभारत, 12/34/82)। प्रथम गण्ड/19 प्रथम खण्ड/19
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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