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- श्रुति (वेद, स्मृति) या जैनेतर कोई भी शास्त्र उक्त वैचारिक पृष्ठभूमि में हमारे लिए मान्य हो सकता है, हमें कोई आपत्ति नहीं है।
उक्त उदारता व सहिष्णुता को और आगे बढाते हुए महाभारतकार ने यहां तक व्यवस्था दी कि जो धर्म दूसरे धर्मों पर आघात करता है या उसका विरोध करता है, वह 'धर्म' ही नहीं है
धर्मं यो बाधते धर्मः, न स धर्मः कुधर्म तत्। अविरोधात्तु यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्रमः ॥
- (महाभारत-3/131/11-13) निष्कर्ष यह है कि अपनी मौलिक मान्यताओं को अखंडित रखते हुए, अन्य धर्म या उसके अनुयायियों के साथ मिलनाजुलना, तथा उनके क्रियाकाण्डों में सम्मिलित होना जैन संस्कृति में स्वीकारा गया । इस उदारता ने एक साझी संस्कृति के निर्माण को गति दी।
स्वतन्त्र विचारों की दार्शनिक अभिव्यक्ति
भारतीय सांस्कृतिक क्षेत्र में सम्भवतः जैन अनेकान्तवाद के प्रभाव से, स्वतन्त्र दार्शनिक विचारों को फलने-फूलने का पूर्ण अवसर मिला । फलस्वरूप वैदिक संस्कृति में मौलिक/प्रारम्भिक विचारधारा से हट कर ऐसे विचारों की भी अभिव्यक्ति प्रबल होती गई जो जैन संस्कृति से साम्य रखते थे या जिन पर उसका प्रभाव परिलक्षित होता था । उदाहरणार्थः
1. ज्ञानकाण्ड की प्रमुखता तथा यज्ञ-विरोध:
वैदिक संस्कृति में यज्ञ को प्रधानता प्राप्त थी तो जैन धर्म में आत्म-विद्या या 'ज्ञान' (सम्यक्ज्ञान) की प्रमुखता थी। समन्वय के वातावरण में वैदिक परम्परा ने कर्मकाण्ड की अपेक्षा 'ज्ञानकाण्ड'
जैन धर्म
टिका धर्म की सारकतिक एकता/181