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दार्शनिक विचारधाराओं को जैन अनेकान्तवाद की पृष्ठभूमि में जैन परम्परा के अनुकूल/संगत सिद्ध करने का प्रयास किया।
आचार्य हरिभद्र जैसे उदारवादी जैनाचार्यों के उक्त प्रयास के फलस्वरूप समग्र भारतीय संस्कृति में एक समन्वय व परस्पर बहुमान का जो सुखद वातावरण बना, उसके निदर्शन के लिए तो एक शोध-प्रबन्ध पर्याप्त होगा, किन्तु यहां संक्षेप में कुछ निदर्शन देना पर्याप्त होगा।
आचार्य हरिभद्र के ग्रन्थ 'षड्दर्शनसमुच्चय' (के पद्य सं. 8) पर टीकाकार आ. गुणरत्नसूरी (14-15 वीं शती वि.) ने समन्वित भारतीय संस्कृति की विचारधारा को समर्थन देते हुए निम्नलिखित उद्गार प्रकट कियेः
श्रोतव्यः सौगतो धर्मः, कर्तव्यः पुनराहतः। वैदिको व्यवहर्तव्यः, ध्यातव्यः परमः शिवः॥
अर्थात् बौद्ध धर्म श्रवण करने योग्य है, कर्तव्यता यानी पुरूषार्थ-सम्पादन की दृष्टि से आर्हत/जैन धर्म उपादेय है, सांसारिक आचार-व्यवहार की दृष्टि से वैदिक धर्म की उपादेयता है और ध्यानसाधना की दृष्टि से परम शिव (वीतरागता के प्रतीक देव) उपादेय हैं।
इसी तरह, आचार्य सोमदेव सूरि (1-11 वीं शती) ने लौकिक आचार-व्यवहार में उदारता-पूर्ण दृष्टिकोण इस प्रकार व्यक्त कियाः
सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः। यत्र सम्यक्त्वहानिर्न, यत्र न व्रतदूषणम् ॥
(उपासकाध्ययन, 34/48) श्रुतिः शास्त्रान्तरं वाऽस्तु प्रमाणं वाऽत्र का क्षतिः।
(उपासकाध्ययन, 34/477) अर्थात् अपने सम्यक्त्व (देव, गुरु, व शास्त्र के प्रति श्रद्धा) को आंच न आवे और अपने व्रत-नियम का उल्लंधन नहीं होता हो, ऐसे किसी भी लौकिक आचार-विधि को प्रमाणता या मान्यता देने में कोई हर्ज नहीं है।