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________________ अर्थात् जिस प्रकार, जिनेन्द्र (तीर्थंकर आदि) आत्म-साधना में तल्लीन रहकर परम शान्ति उपलब्ध करते हैं, उसी तरह की मेरी भी इच्छा है। अब मेरा सांसारिक पदार्थों में मन (आसक्ति का भाव) नहीं है और कोई चाह भी नहीं बची है। उपर्युक्त कथन से वह स्पष्ट प्रमाणित होता है कि श्रमण जैन संस्कृति ने भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग बन कर, अध्यात्मसाधना की दृष्टि से अपना उत्कृष्ट स्थान बना लिया था। वैदिक परम्परा में भागवत पुराण (के पंचम स्कन्ध, 3-6 अध्यायों) में श्रमण संस्कृति के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ या ऋषभदेव को एक ऐसे ईश्वरीय अवतार के रूप में वर्णित किया गया है जो वातरशना-पूर्णसंयमी श्रमणों की परम्परा के धर्म का उद्बोधन देने के लिए अवतरित हुए थे। भागवत पुराण के एक पद्य (5/6/19) में उनके प्रति नमन करते हुए उनके प्रति पूर्ण आस्था व श्रद्धा इस प्रकार प्रकट की गई है: नित्यानुभूतनिजलाभनिवृत्ततृष्णः, शेयस्यतद्रचनया चिरसुप्तबुद्धेः । लोकस्य यः करुणयाभयमात्मलोक मारव्यान्नमो भगवते ऋषभाय तस्मै॥ -अर्थात् चिरकाल से निरन्तर विषय-भोगों की तृष्णा के कारण जो लोग वास्तविक कल्याण से बेसुध हो रहे थे, उन्हें जिसने करुणावश निर्भय आत्मलोक का उपदेश दिया और जो स्वयं आत्मस्वरूप को उपलब्ध कर सभी तृष्णाओं से मुक्त हो गए थे- उन भगवान् ऋषभदेव को हमारा नमस्कार है। जैन परम्परा में भी आ. सिद्धसेन (ई. 5 वीं शती), आ. हरिभद्र (ई. 8 वी. शती) एवं आ. हेमचन्द्र (ई. 12 वीं शती) जैसे आचार्यों ने समन्वय व उदारता का मार्ग प्रशस्त किया। प्रसिद्ध जैनाचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रन्थ 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' ग्रन्थ में जैनेतर विभिन्न जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सारकृतिक एकता/16
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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