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________________ होता रहा और उनकी अनेक प्रारम्भिक विचारधाराओं में थोडाबहुत परिवर्तन-परिवर्धन-परिष्करण होता रहा, यद्यपि दोनों ने अपने मौलिक स्वरूप को अपरिवर्तित रखने का भी प्रयास किया है। .. वैदिक धर्म हो या जैन धर्म, दोनों ने परस्पर-समन्वय की दिशा में बढ़ते हुए और एक दूसरे के निकट आने का प्रयास किया है। दोनों धर्मों व संस्कृतियों में परस्पर हुए समन्वयात्मक प्रयास निरन्तर होते रहे हैं और उन प्रयासों ने दोनों की सांस्कृतिक एकता का सूत्रपात किया है। । यद्यपि समन्वयात्मक प्रयासों के विपरीत, विरोध व प्रतिक्रिया के स्वर भी कभी-कभी प्रबल हुए हैं, किन्तु यहां 'सांस्कृतिक एकता' के समर्थक प्रयासों एवं उनसे होने वाले वैचारिक परिष्कारों/निखारों को रेखांकित करना प्रासंगिक होगा। उक्त समन्वयात्मक प्रयासों के परिणामस्वरूप, संस्कृति का एक समन्वित रूप उभर कर आया है जिसे हम समग्र भारतीय संस्कृति का 'उत्स' कह सकते हैं। इसी उत्स या सार को रूपायित करने वाली सांस्कृतिक समन्वय की पृष्ठभूमि पर संक्षिप्त प्रकाश डालने का प्रयास आगे किया जा रहा है। परस्पर बहुमान व उदार दृष्टिकोण: समन्वय की भावना से दोनों धर्मों व संस्कृतियों के मध्य संकीर्णता व कट्टरता में कमी आती गई और उदारता व सहिष्णुता का मार्ग प्रशस्त होता गया। उदाहरणार्थ- वैदिक परम्परा के योगवाशिष्ठग्रव्य (वैराग्यप्रकरण, 15/8) में भगवान् राम ने निम्रलिखित उदार उद्गार प्रकट किये हैं नाहं रामो न मे वांछा, भावेषु न च मे मनः। शान्तिमासितुमिच्छामि, स्वात्मनीव जिनो यथा ॥ प्रथम खण्ड/15
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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