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________________ अपेक्षा के धागे को जोड़कर उसका प्रतिपादन करो, मिथ्या सत्य हो जाएगा और खण्ड अखण्ड का प्रतीक । सिद्धसेन दिवाकर ने यही बात काव्य की भाषा में कही है उदधाविव सर्वसिन्धवः, समुदीर्णास्त्वयि सर्वदृष्टयः। न च तासु भवानुदीक्ष्यते, प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः॥ (द्वात्रिंशिका-4/15) - जैसे समुद्र में सारी नदियां मिलती हैं, वैसी ही तुम्हारे दर्शन में सारी दृष्टियां मिली हुई हैं। भिन्न-भिन्न दृष्टियों में तुम नहीं दीखते जैसे नदियों में समुद्र नहीं दीखता। इस प्रकार, अनेकान्तवाद ने विभिन्न विचारधाराओं में . परस्पर समन्वय का मार्ग प्रशस्त किया। यही कारण था कि आज विभिन्न दर्शन, परस्पर विचार-भिन्नता रखते हुए भी दार्शनिक क्षेत्र में स्वतन्त्र अस्तित्व बनाए हुए हैं और एक सांझी संस्कृति के निर्माण में सहयोगी रहे हैं। - दोनों संस्कृतियों/धर्मों में परस्पर समन्वय की पृष्ठभूमि प्रारम्भ में वैदिक/ब्रह्मण संस्कृति तथा निवृत्तिप्रधान श्रमण/ जैन संस्कृति- इन दोनों में उग्र वैचारिक मतभेद था। निश्चित ही. यह स्थिति भगवान् महावीर के पूर्व तक तो थी ही। महर्षि पाणिनि (ई. पू. 5 वीं शती, तथा इसके महाभाष्यकार पतञ्जलि) (ई. पू. 2-3 शती) ने दोनों धर्मों के पारस्परिक भेद व विरोध का संकेत भी किया है (द्र. येषां च विरोधः शाश्वतिकः, अष्टाध्यायी सूत्र- 2/4/9, तथा इस पर महाभाष्यश्रमण-ब्राह्मणम्) । किन्तु, कालान्तर में यह विरोध घटा और दोनों विचारधाराओं में परस्पर-समन्वय के द्वार खुलते गए और फलस्वरूप एक सांझी संस्कृति का सूत्रपात हुआ। ऐतिहासिक अनुशीलन से यह स्पष्ट होता है कि कालक्रम से, दोनों संस्कृतियों में एक दूसरे के विचारों का आदान-प्रदान - जैन धर्म पदिक धर्म की सारीक वाता/14
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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