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________________ का दर्जा देती है। विरूद्ध सापेक्ष कथन को भी सत्यांश मानते हुए अपने सापेक्ष कथन को सत्यांश मानना- यह अनेकान्त दृष्टि है। उदाहरणार्थ- वस्तु जहां नित्य है, वहां अनित्य भी है, दोनों में सापेक्ष दृष्टि पृथक्-पृथक् है । अतः 'वस्तु नित्य' यह कथन सत्यांश है तो 'वस्तु अनित्य है' यह कथन भी सत्यांश है। दोनों में परस्पर सहयोग व सहिष्णुता रख कर ही सत्य को पूर्णता या प्रामाणिकता दी जा सकती है। जैन परम्परा की यह अनेकान्त दृष्टि अनेकता में एकता और एकता में अनेकता को लेकर चलती है। यह सब वादों और विवादों को सुलझा देती है। यह सब कदाग्रहों और हठाग्रहों को दूर हटा देती है। यह वह संजीवनी है जो अभिमान एवं कदाग्रह की व्याधियों को नष्ट कर देती है। यह वह अमृत है जो एकान्त के विष को निष्प्रभावी कर देता है । इस अनेकान्त दृष्टि को न केवल शास्त्रों तक सीमित रखना चाहिए, अपितु जीवन-व्यवहार में भी उतारना चाहिए। यदि जीवन व्यवहार में अनेकान्त दृष्टि आ जाती है तो सर्वत्र शान्ति ही शान्ति प्रतीत होने लगती है। यदि यह अनेकान्त दृष्टि व्यवहार में नहीं आती है तो वहां क्लेश, विवाद, संघर्ष और अशान्ति ही मची रहती है। सापेक्षता के सिद्धान्त की स्थापना कर जैन परम्परा ने बौद्धिक अहिंसा का नया आयाम प्रस्तुत किया। उस समय अनेक दार्शनिक तत्त्व के निर्वाचन में बौद्धिक व्यायाम कर रहे थे। अपने सिद्धान्त की स्थापना और दूसरों के सिद्धान्त की उन्मूलना का प्रबल उपक्रम चल रहा था। उस वातावरण में जैन परम्परा ने दार्शनिकों से कहा- 'तुम्हारा सिद्धान्त मिथ्या नहीं है। पर तुम अपेक्षा के धागे को तोड़कर उसका प्रतिपादन कर रहे हो, खण्ड को अखण्ड बता रहे हो, इस कोण से तुम्हारा सिद्धान्त मिथ्या है। प्रथम खण्ड/ 130
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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