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________________ दोनों की वैचारिक एकता के सूत्रों को रूपायित करती हुई सांझी संस्कृति की विचारधारा भी स्पष्ट परिलक्षित हो रही है। ___वस्तुतः ‘भारतीय संस्कृति' की समन्वय-भावना व पाचनशक्ति बड़ी ही अद्भुत है। उसका लचीलापन ऐसा है जो प्रतिरोधी विचारधारा को आत्मसात् करने में उसे सक्षम बनाती है। इस संस्कृति ने अनेकानेक देशी-विदेशी विचारधाराओं, विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं को आत्मसात् कर अपने को समृद्ध ही किया है। सुप्रसिद्ध इतिहासकार मिस्टर डाडवेल ने लिखा है कि 'भारतीय संस्कृति महासमुद्र के समान है जिसमें अनेक नदियां आ-आकर विलीन होती रही हैं। अनेक विचारधाराओं के सम्मेलन से इस संस्कृति में एक विश्वजनीनता उत्पन्न हुई जिसे देखकर सारा विश्व आश्चर्यचकित है। समन्वय में जैन अनेकान्तवाद की भूमिका भारतीय सांस्कृतिक विचारों में, विशेषकर दार्शनिक विचारधाराओं में, परस्पर-संघर्ष को मिटा कर उनमें सह-अस्तित्व, सहिष्णुता व उदारता का संचार करने में जैन परम्परा के 'अनेकान्तवाद' की एक बड़ी भूमिका रही है। व्यावहारिक जगत् में प्रत्येक शाब्दिक व्यवहार सापेक्षता से जुड़ा हुआ होता है। वह सापेक्ष कथन वस्तु के पूर्ण सत्य को कहने में अक्षम होता है । वह तो सत्य का आंशिक निरूपण ही कर पाता है। क्योंकि वस्तु अनन्तधर्मात्मक होती है, अर्थात् उसमें परस्पर-विरूद्ध धर्मों का अस्तित्व है । अतः कोई भी कथन किसी दृष्टिविशेष से, और वस्तु के किसी धर्मविशेष को प्रमुखता देकर वस्तु का सापेक्ष कथन होता है, इसलिए वह वस्तु के पूर्ण सत्य स्वरूप का वाचक नहीं हो पाता । उक्त सत्य को अनेकान्त दृष्टि हृदयंगम कराती है और एक सापेक्ष कथनविशेष को सत्यांश मानने के साथ-साथ विरोधी वचन को भी सत्यांश - जेन धर्म एव वेदिक धर्म की सार कतिक एकता/12 P C
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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