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________________ (6) यथाक्रतुरस्मिन् लोकेपुरुषो भवति, तथैव प्रेत्य भवति। (छान्दोग्य उपनिषद्-3/14/1) ___ - यहां इस लोक में जो जैसा कार्य करता है, वह परलोक में वैसा ही फल पाता है। (7) कम्मसच्चा हु पाणिणो। (उत्तराध्ययन सूत्र-7/20) - प्राणी जैसे कर्म करते हैं, सचमुच वैसा ही फल पाते हैं। __(8) अन्यदुःसंजातमन्यद, इत्येतन्नोपपद्यते। (मनुस्मृति-9/40) - बोया जाए कुछ और ही, उत्पन्न हो कुछ और ही, ऐसा कभी नहीं होता। (9) सकम्मुणा विपरियासुवेइ। (सूत्रकृतांग सूत्र- 1/7/11) - (अज्ञानी) व्यक्ति अपने कर्म (असत् कर्म-पाप) से ही दु:खी होता है। (10) हिंस्त्रः स्वपापेण विहिसतः खलु साधुः समत्वेन भयाद्विमुच्यते॥ (भागवत पुराण- 10/8/31) - पापी अपने पाप से ही नष्ट हो जाता है। साधु पुरुष अपनी समता से ही भयविमुक्त हो जाता है। - तृतीय खण्ड/409
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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