________________
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
(गीता-9/27-28) - अर्जुन! तुम जो करते हो, खाते हो, होमते हो, देते हो, तपते हो, वह सब मुझे अर्पण कर दो। अर्थात् यह सब तुम मुझे अर्पण करते हुए करो। इस प्रकार, तुम समस्त शुभ या अशुभ फलों वाले कर्म-बन्धन से मुक्त हो जाओगे।
(3) सव्वभूयप्पभूयस्स, सम्मभूयाइंपासओ। पिहियासवस्स दंतस्स, पावकम्मनबंधइ॥
(दशवैकालिक सूत्र-4/9) - जो जगत् के सब जीवों को आत्मवत् समझता है, सब जीवों ’ को सम भाव से देखता है, जो आस्रव (कर्म-आगमन) का निरोध कर चुका है, जो दमयुक्त (जितेन्द्रिय) है, उसके पाप कर्म का बंध नहीं होता।
(4) योगयुक्तो विशुद्धात्मा, विजितात्मा जितेन्द्रियः। सर्वभूतात्मभूतात्मा, कुर्वन्नपि न लिप्यते॥
(गीता- 5/7) - जिसने योग साधा है, अन्तरतम को विशुद्ध किया है, मन और इन्द्रियों को जीता है और जो प्राणी मात्र को अपने जैसा ही समझता है, ऐसा मनुष्य कर्म करते हुए भी उससे अलिप्त रहता है।
(5)
जंजारिसंपुव्वमकासि कम्म, तमेव आगच्छति संपराए।
(सूत्रकृतांग- 1/5/2/23 - आत्मा ने जैसे कर्म किये हैं, संसार में उसी के अनुसार उसे फल मिलता है।
जैन धर्म एकोदित धर्म की सारगतिक पता/4082