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________________ (11) कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं । (उत्तराध्ययन सूत्र- 13/23) • कर्म अपने कर्ता के पीछे-पीछे चलता है। - (12) यथा धेनु - सहस्त्रेषु, वत्सो याति स्वमातरम् । तथा पूर्वकृतं कर्म, कर्तारमनुगच्छति ॥ ( महाभारत- 12/181/16) - हजारों गायों में भी जैसे बछड़ा सीधा अपनी माता के पास जाता है, उसी प्रकार कर्म भी अपने कर्ता का अनुगमन करता है। (13) कडाण कम्माण न मुक्ख अत्थि । ( उत्तराध्ययन सूत्र - 4/3) - बिना भोगे, किये हुए कर्मों से मोक्ष-छुटकारा नहीं होता । (14) अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्मशुभाशुभम् । (विवेकचूडामणि) - अच्छे-बुरे किये हुए कर्म निश्चित रूप से भोगने ही पड़ते हैं । - (15) संसारमावन्न परस्स अट्ठा, साहारणे जं च करेड़ कम्मं । कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले ण बंधवा बंधवयं उवैति ॥ (उत्तराध्ययन सूत्र - 4/4) - संसारी जीव अपने लिए और दूसरों के लिए जो साधारण भी कर्म करता है, उस कर्म के फल-भोग में कोई सम्बन्धी जन हिस्सा नहीं बंटाते । जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता/ 410
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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