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________________ 00000000000000 DoordaarROE220000000car सन्मार्ग 33000000 9000000689 जीवन एक यात्रा है। मृत्यु एक पड़ाव है। इस यात्रा का लक्ष्य होता है- संसार-मुक्ति । इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए अन्तर्जागरण, अप्रमाद, संयमतप की साधना अंगीकार करनी होती है। अन्यथा, यात्री लक्ष्य से च्युत हो जाता है और अनन्तानन्त काल तक यात्रा में ही भटकता रहता है। इसी तथ्य की अभिव्यक्ति वैदिक व जैन- इन दोनों धर्मों के साहित्य में हुई है। (1) अमग्गं परियाणामि, मग्गं उवसंपज्जामि। (आवश्यक सूत्र-4/प्रतिक्रमणपाठ) - मैं अमार्ग-असत्मार्ग का परित्याग करता हूं, मार्ग- सन्मार्ग को स्वीकार करता हूं। (2) दुश्चरिताबाधस्वामासुचरिते भज। (यजुर्वेद-4/28) - मुझे दुष्कर्मों से बचाकर सत्कर्मों में दृढ़ता से स्थापित कीजिए। तृतीय स्वाएड405
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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