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________________ - सुख का मूल सन्तोष है और दुःख का मूल तृष्णा । (3) एवमेगेसिं महब्भयं भवइ । - यह परिग्रह ही लोगों के महाभय का हेतु है । - (4) अर्थेप्सुता परं दुःखमर्थप्राप्तौ ततोऽधिकम् । जातस्नेहस्य चार्थेषु विप्रयोगे महत्तरम् ॥ ( महाभारत- 1/156/28) धन की इच्छा सबसे बड़ा दुःख है, किन्तु धन प्राप्त करने में तो और भी अधिक दुःख है । जिसे प्राप्त धन में आसक्ति हो गई हो, धन का वियोग होने पर उसके दुःख की तो कोई सीमा ही नहीं रहती । - - - (5) अत्थो मूलमनत्थाणं । ( आचारांग सूत्र - 1/5/2) (6) अर्थमनर्थं भावय नित्यम् । अर्थ (धन-संपत्ति आदि) तो अनर्थों का मूल है। धन संपत्ति को अनर्थकारी समझो। (7) धणेण किं धम्मधुराहिगारे । वृताय खण्ड 397 ( मरणसमाधि - 603) (चर्पटमंजरी) (उत्तराध्ययन सूत्र - 14/17)
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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