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भोजन।
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धर्म-साधना का साधन है- शरीर। कहा भी है- शरीरमाचं खलु धर्म-साधनम्।इस शरीर को स्वस्थ रखने के लिए उपयुक्त भोजन के अपेक्षा होती है। किन्तु भोजन कब करना चाहिए, कब नहीं, भोजन में क्या ग्राह्य वस्तुएं होती हैं- इस सम्बन्ध में भारतीय चिन्तकों व धर्म-गुरुओं ने पर्याप्त उपदेश दिए हैं। वैदिक व जैन- इन दोनों धर्मों में भोजन के सम्बन्ध में जो समान विचार-बिन्दु हैं- उन्हें दृष्टिगत रख कर कुछ शास्त्रीय उद्धरण यहां प्रस्तुत हैं।
(1) असंविभागी नहुतस्स मोक्खो।
(दशवैकालिक सूत्र-9/2/22) - जो संयमी साधक भोजन में अपने साथियों को संविभागहिस्सा नहीं देता, उसकी मुक्ति नहीं होती।
(2) केवलाघो भवति केवलादी।
(ऋग्वेद-10/117/6) - अकेला खाने वाला केवल पाप खाता है।
जैन धर्म
वैदिक धर्म की सास्कृतिक वाता/394