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(13) पुढवी साली जवा चेव, हिरण्णं पसुभिस्सह। पडिपुण्णं णालमेगस्स, इइ विज्जा तवं चरे॥
(उत्तराध्ययन सूत्र-9149) - चावल, जौ, सोना और पशुओं सहित समूची पृथ्वी भी एक मनुष्य के संतोष के लिए यथेष्ट नहीं है, यह जानकर मनुष्य विरक्ति से संतोष करे।
(14) पृथिवी रत्नसम्पूर्णा हिरण्यं पशवः स्त्रियः। नालमेकस्य तत् सर्वमिति मत्वाशमं व्रजेत् ॥
(महाभारत- 1/75/51) - रत्नों से भरी सारी पृथ्वी, संसार का सारा सुवर्ण, सारे पशु और सुन्दर स्त्रियां किसी एक पुरुष को मिल जाएं, तो भी वे सबके सब उसके लिए पर्याप्त नहीं होंगे, वह और भी पाना चाहेगा।ऐसा समझ कर शान्ति धारण करेभोगेच्छा से विरक्त हो जाए।
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परिग्रह का अर्थ है- आवश्यकता से अधिक संग्रह करने की अज्ञानमय विषय-आसक्ति। परिग्रही व्यक्ति सदा असंतुष्ट रहता है। उसकी तृष्णा बढती जाती है जो उसके लिए अनन्त दुःखपरम्परा को जन्म देती है। इसके विपरीत, विरक्ति, अनासक्ति, सन्तोष पर आधारित 'अपरिग्रह' के मार्ग को अपना कर व्यक्ति दुःखमुक्ति की ओर अग्रसर होता है। इस सन्दर्भ में उपर्युक्त उद्धरण जैन व वैदिक- दोनों धर्मों की समान विचारधारा का पोषण करते हैं।
ननीय गड/393