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__(8) लोभं हित्वासुखी भवेत्।
(महाभारत-3/313/78)
- लोभ को छोड़ने पर (ही) सुख प्राप्त होता है।
(9)
ममत्तभावं न कहिं चि कुज्जा।
(दशवैकालिकचूर्णि- 2/8) - कहीं भी ममत्व भाव नहीं करना चाहिए।
(10) मा मृधः कस्यस्विद्धनम्।
(ईशावास्योपनिषद्-1)
- किसी के धन पर लालच मत करो।
(11) सुवण्ण-रूवस्स उपव्वया भवे,सियाहुकेलाससमाअसंखया। णरस्सलुद्धस्सण तेहि किंचि, इच्छा हुआगाससमा अणंतिया॥
(उत्तराध्ययन सूत्र- 9/48) - कैलाश के समान सोने और चांदी के असंख्य पर्वत भी यदि पास में हों तो भी तृष्णाशील व्यक्ति की तृप्ति के लिए वे कुछ नहीं के बराबर हैं, क्योंकि तृष्णा आकाश के समान अनन्त होती है।
(12) न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः।
(कठोपनिषद्- 1/127)
- मनुष्य धन से कभी तृप्त नहीं होता।
जैन धर्म एव वेदिक धर्म की सारगतिक
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