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________________ (2) ____अदिनमन्नेसुनो जहेजा। (सूत्रकृतांग सूत्र-1/10/2) - विना दी हुई दूसरों की किसी भी वस्तु को न ले। (3) सर्वतः शङ्कते स्तेनो मृगो ग्राममिवेयिवान्। (महाभारत- 12/259/16) - जिस प्रकार कोई हरिण या पशु ग्राम में (पशु-हत्यारों के घात से आशंकित होता हुआ) प्रवेश करता है, उसी प्रकार चोर (लोगों की आंखों से बचता हुआ) सर्वत्र सशंकित रहता है। (4) अदिण्णादाणंहर-दह-मरणभय-कलुस-तासण-परसंतियअभेजलोभमूलं कालविसमसंसयं अणिहुय-परिणाम। (प्रश्नव्याकरण सूत्र-1/3/60) - यह अदत्तादान (चोरी) का दुष्कर्म (किसी के धन आदि का) अपहरण (ही) है। यह कार्य हृदय-दाहक होता है, इसमें मृत्यु आदि का भय बना रहता है, यह कलुषित विचारों से ग्रस्त रहता है, तथा लोभ इसका मूल है। इस कार्य में लगे चोर-डाकू (भय व आशंका के कारण, छिपने के लिए) पर्वत आदि विषम-दुर्गम स्थान को तथा रात आदि के अन्धकारपूर्ण विषम समय को अधिक उपयुक्त-प्रशंसनीय मानते हैं। (5) अवतीर्णस्य ग्रहणं, परिग्रहस्य प्रमत्तयोगाद् यत्। तत् प्रत्येयं स्तेयम्। (आ. अमृतचन्द्र-कृत पुरुषार्थसिद्धयुपाय-4/66/102) D Zजैन धर्म एकदिक धर्म की सारततिका पता/388
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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