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(3) अदक्खुवदक्खुवाहियंसदहसु।
- (सूत्रकृतांग-2/3/11) - ओ देखने वालों! तुम देखने वालों (सत्य-द्रष्टा महापुरुषों) की बात पर विश्वास और श्रद्धा करके चलो।
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आज्ञैव भव-भञ्जकी।
(योगसार) - आज्ञा ही भव-आवागमन (जन्म-मरण) का नाश करने वाली है।
(5) वितिगिच्छ-समावनेणं अप्पाणेणं नो लहइ समाहिं।
(आचारांग सूत्र-1/5/5) -विचिकित्सा-संशय उत्पन्न होने पर शांति नहीं मिल सकती।
(6) अज्ञश्चाश्रद्धधानश्च संशयात्मा विनश्यति। नायं लोकोऽस्ति नपरो, न सुखं संशयात्मनः।
(गीता-4/40) - ज्ञानहीन, श्रद्धाहीन तथा संशयहीन व्यक्ति नष्ट हो जाता है। जो संशयात्मा है, उसके लोक और परलोक दोनों बिगड़ते हैं तथा उसे सुख नहीं मिलता।
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सन्देह व संशय को दूर कर, 'श्रद्धा'/समर्पण के मार्ग पर चलने वाले साधक को ज्ञान की उपलब्धि या सत्य की प्राप्ति सहजतया होती है- इस तथ्य को एक स्वर में वैदिक व जैन-दोनों परम्पराओं ने अभिव्यक्त किया है।
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