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________________ (7) आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः। (गीता-6/5) - आत्मा ही अपना बन्धु है और वही अपना शत्रु है। (8) नतं अरी कंठछेत्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा। (उत्तराध्ययन सूत्र-20/49) - जितना बुरा अपना ही दुष्प्रवृत्त आत्मा कर सकता है, उतना बुरा कोई गला काटनेवाला शत्रु भी नहीं कर सकता। (9) योऽवमन्यात्मनाऽऽत्मानमन्यथा प्रतिपद्यते। नतस्यदेवाः श्रेयांसोयस्याऽत्माऽपिन कारणम्॥ (महाभारत-1/74/33) ___ - जो स्वयं अपनी आत्मा को तिरस्कृत करके कुछ का कुछ समझता है और करता है, स्वयं का अपना आत्मा ही जिसका हित-साधन नहीं कर सकता है, उसका देवता भी भला नहीं कर सकते। वैदिक व जैन- दोनों धर्मों के ऋषियों, मुनियों, चिन्तकों ने आत्मा के सम्बन्ध में जिस सत्य की अनुभूति की, उसका सार उपर्युक्त शास्त्रीय उद्धारणों में प्रस्फुटित हुआ है। दोनों परम्पराओं का वैचारिक साम्य पठनीय व मननीय है। जैन धर्म पदिक धर्म की सारगतिक एकतI/372 >
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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