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आत्मा
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प्रायः सभी दर्शनों की जिज्ञासा का विषय 'आत्मा' रहा है। समस्त अध्यात्म-चिन्तन प्रमुखतया आत्मकेन्द्रित है। प्रत्येक प्राणी 'मैं 'इस शब्द से जिस आत्म-पदार्थ का संवदेन करता है, वह कैसा है, उसका आकार-प्रकार क्या है, देह से पृथक् उसकी सत्ता है या नहीं, कैसे उसे जाना जाय- ये प्रश्न सब के मन में उठते रहे हैं। इन प्रश्नों के समाधान हेतु अनेकानेक प्रयत्न भी होते रहे हैं। सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों से तथा शरीर को तोल कर, चीर कर अनेक तरह से आत्मा को देखने का भी यत्न किया गया।
जैन धर्म में बताया गया है कि आत्मा को इन्द्रियों से, तर्क से तथा किसी यन्त्र आदि से देखा नहीं जा सकता। वह अमूर्त है। उसे ध्यान से अनुभव किया जाता है। वैदिक धर्म के ऋषियों का भी यही मन्तव्य रहा है।
दोनों ही धर्म यह मानते हैं कि दुष्प्रवृत्तियों में संलग्न आत्मा ही अपना शत्रु है और सदाचार में प्रवृत्त आत्मा परम मित्र है।
सव्वे सरा नियट्दंति, तक्का तत्थ न विज्जइ।मई तत्थ न गाहिया।
(आचारांग सूत्र-216) - आत्मा के विषय में शब्द और तर्क नहीं चल सकते। बुद्धि उसकी थाह नहीं ले सकती।
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जेन धर्म पदिक धर्म की सार-fin indi/3701