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शुकदेव चल दिए । महाराज जनक ने पहले ही नगर में रागरंग व नाच-नाटकों आदि का प्रबन्ध करा दिया था। शुकदेव लौटे। जनक ने पूछा- “मार्ग के नाटक व संगीत कैसे लगे?' शुकदेव ने उत्तर दिया“मुझे तो कहीं भी नाटक-संगीत-नृत्यादि दिखाई ही नहीं दिए। मुझे तैल के कटोरे के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था।"
“तुम उत्तीर्ण हुए।" जनक बोले- “जो इसी तरह संसार में रहकर उससे अछूता रहता है, वह संसार में रहकर भी संसारी नहीं है। शुकदेव! तुम तो जन्मजात ज्ञानी हो । मुझे मान देने आए हो।'
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उपर्युक्त चार कथानकों में जनक व शुकदेव- ये दो कथानक वैदिक परम्परा से सम्बद्ध हैं, और नमि राजर्षि व भरत - ये दो कथानक जैन परम्परा से सम्बद्ध हैं। पहली दो कथानकों और अन्तिम दो कथानकों में स्थान व पात्रों की भिन्नता भले ही हो, परन्तु तथ्य समान है। जैन परम्परा के चक्रवर्ती भरत का मृत्यु-बोध उन्हें चक्रवर्ती होते हुए भी मोक्षगामी बना देता है तो वैदिक परम्परा के महाराज जनक राजकाज करते हुए और पारिवारिक उत्तरदायित्व को वहन करते हुए भी मृत्यु दर्शन की स्मृति के कारण विदेहराज कहलाते हैं।
___ राजा जनक और नमि राजर्षि-दोनों इस प्रकार आसक्त हैं कि महल जल रहे हैं तो यह मानते है कि उनका कुछ नहीं जल रहा है। तीसरे-चौथे कथानकों में यह तथ्य प्रकट होता है कि मृत्यु के सामने होने पर संसार के आकर्षण व्यक्ति को अपनी ओर लुभा नहीं पाते। सभी कथानकों का सार यह है कि मृत्यु की अवश्यंभाविता तथा आत्मा की अमरता की सतत स्मृति रखने से व्यक्ति मोह, अहंकार, काम-आसक्ति आदि में नहीं फंसता । इस तरह, मृत्यु व्यक्ति की शत्रु नहीं, मित्र है।
तिमय खण्ड/359