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"नगर में तो बड़ा उत्सव था।' भरत बोले- “नृत्य-गान और नाटक हो रहे थे। क्या तुम्हारा मन वहां नहीं रमा?"
"कैसे रमता?' व्यक्ति बोला- “जिसके सिर पर मृत्यु नाच रही हो वह आमोद-प्रमोद और राग-रंग में भला कैसे रम सकता है!"
भरत मुस्कराए और बोले- “बन्धु! एक दिन के मृत्युभय से तुम इतने भयभीत हो गए कि आंख उठाकर अपने सामने हो रहे दृश्यों को नहीं देख पाए। लेकिन मेरे सामने तो जन्म-जन्मान्तरों की मृत्यु खड़ी मुझे भयभीत कर रही है। फिर मैं भला चक्रवर्ती के भोगों में लिप्त कैसे हो सकता हूं। प्रतिक्षण मेरी ओर सरकती मृत्यु मुझे प्रतिक्षण भोगों से विरक्त रखती है। तुमने भगवान् की वाणी में संदेह किया था। तुम्हें सत्य से परिचित कराने के लिए ही मैंने यह युक्ति निकाली थी।"
वह व्यक्ति भरत के कदमों में गिर गया और बोला"भगवान् की वाणी परमसत्य है। मेरा भ्रम टूट चुका है। अनासक्त चित्त ही सच्चा त्यागी होता है। आप चक्रवर्ती होते हुए भी महात्यागी हैं और महात्यागियों के लिए मोक्ष का द्वार प्रतिपल खुला रहता है।"
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[४] जनक और शुकदेव
(वैदिक) शुकदेव जन्मजात ज्ञानी थे। फिर भी गुरु बनाना आवश्यक है, इसलिए वे जनक को गुरु बनाने उनके पास पहुंचे। शुकदेव कई दिनों तक बाहर धूप में बैठे रहे। जनक ने उनकी कोई खबर न ली। फिर कई दिनों तक पानी में भीगते रहे, फिर भी उन्हें बुरा नहीं लगा। अहंकारशून्य शुकदेव जनक की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। अब अन्तिम परीक्षा लेने के लिए जनक ने शुकदेव को तैल से भरा एक कटोरा दिया और बोले- "बस यही एक काम तुम्हें करना है। उसके बाद मैं तुम्हें शिष्य बना लूंगा। यह कटोरा लेकर मिथिला नगरी का एक चक्कर लगा आओ। ध्यान रहे कि इस कटोरे से एक भी तेल की बूंद नीचे नहीं गिरनी चाहिए।"
<जैन धर्म एवं दिक धर्म की सांस्कृतिक एकता/358)><