________________
के समान निर्लिप्त थे। उनका हृदय निवृत्ति और वैराग्य से परिपूर्ण बना रहता था। आदि प्रभु ऋषभदेव भरत चक्रवर्ती के पिता थे। एक समय तीर्थंकर ऋषभदेव अयोध्या नगरी में पधारे। उनकी देशना सुनने हजारों नर-नारी गए। भरत चक्रवर्ती भी प्रभु के चरणों में पहुंचे । प्रभु ने देशना दी।
देशना के उपरान्त एक व्यक्ति ने प्रभु ऋषभदेव से पूछा"भन्ते! भरत चक्रवर्ती किस गति में जाएंगे?''
“मोक्ष में!' भगवान् ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया।
इस उत्तर को सुनकर प्रश्नकर्ता ने भगवान् ऋषभदेव पर आरोप लगाते हुए कहा- “आखिर भरत आपके पुत्र जो ठहरे! संतजन भी पक्षपात करते हैं। अपना पुत्र होने के कारण उसकी गति मोक्ष की बता रहे हैं। भोग-विलास भोगते हुए और राज्यलक्ष्मी का आनन्द लेते हुए भी यदि मुक्ति प्राप्त की जा सकती है तो त्याग का अर्थ ही व्यर्थ हो गया।"
भरत उस व्यक्ति की बात सुन रहे थे। भगवान् की वाणी पर उसका संदेह और आरोप उन्हें अच्छे नहीं लगे। उन्होंने उक्त व्यक्ति को उपयुक्त युक्ति से समझाने का निश्चय कर लिया।
भरत राजमहल में लौट आए। उन्होंने अनुचर भेजकर उस प्रश्नकर्ता को बुलाया। उन्होंने उसे एक तैल से भरा कटोरा थमा दिया और दो नंगी तलवारों वाले सैनिक उसके पीछे लगाते हुए कहा-"ध्यान रहे! इस तैलपात्र से बिना एक बूंद गिराए तुम्हें पूरे नगर का एक चक्कर लगाना है। यदि एक बून्द भी पात्र से गिर गई तो तुम्हारा अनुसरण कर रहे सैनिक तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर देंगे।"
भरत चक्रवर्ती ने नगर में स्थान-स्थान पर नृत्य-संगीत, नाटकों की व्यवस्था करवा दी। उन्हें देखने के लिए जगह-जगह दर्शकों की भीड़ भी जमा थी। तेल-पात्र पर दृष्टि जमाए और एक-एक कदम संभल कर रखते हुए वह व्यक्ति नगर की परिक्रमा कर रहा था। उसे चतुर्दिक मृत्यु का ताण्डव दीख रहा था। सन्ध्या समय वह भरत के पास पहुंचा। भरत ने पूछा-“कहिए बन्धु! नगर का वातावरण कैसा लगा?'
"मुझे तो पूरा नगर तेल का सागर दीख रहा था राजन!" व्यक्ति बोला- "तेल और मृत्यु के अतिरिक्त मेरी दृष्टि में कुछ न था।"
द्वितीय खण्ड/357