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________________ पुनः दूसरे राजसेवक आए। उन्होंने कहा- “पृथ्वीनाथ! आग ने आपके महलों को घेर लिया है। रनिवास जल रहा है।" "महल और रनिवास के जलने से मेरा कुछ नहीं जलता।" जनक ने उसी शान्त भाव से उत्तर दिया। तभी फैलती हुई आग सत्संग सभा तक पहुंच गई। अब तक किसी तरह मन मारे बैठे ऋषिगण विचलित हो उठे। अपने-अपने वस्त्रों और कमण्डलुओं को उठाकर वे इधर-उधर दौड़ने लगे। आग जनक की देह तक पहुंच चुकी थी। एक सेवक चिल्लाया"महाराज! अपनी देह की रक्षा कीजिए। आग आपको जला देगी।" ___ "जलाने दो!” जनक बोले-"आग जल जाने योग्य को ही जलाती है। जो जल नहीं सकता उसे जलाने की क्षमता आग में नहीं है।" जनक की इस अनासक्ति को देखकर इधर-उधर दौड़ रहे ऋषि आश्चर्यचकित थे। महर्षि वेदव्यास ने अग्नि समाप्त कर दी। सब कुछ पूर्ववत् हो गया। ऋषि सत्संग-भवन में लौट आए। महर्षि वेदव्यास ने कहा-"ऋषियों! जनक और तुम्हारी आसक्ति में जो अन्तर है, उसे जानकर ही मैंने जनक की प्रतीक्षा की थी। जब तक श्रोता स्वयं को बदल न डाले तब तक सत्संग सुनना और न सुनना समान है।" जनक ने देह और देही के अन्यत्व को आत्मसात् कर लिया था। वे देह में भी विदेह थे। वे शुद्ध आत्मतत्त्व में विरमण करते थे। इसीलिए वे जीवन के व्यामोह और मृत्यु के भय से अतीत थे। वे जानते थे कि पलपल वे मृत्यु से घिरे हैं। जो पल-पल मृत्यु को स्मरण रखता है वह न केवल ममत्व से अतीत हो जाता है अपितु मृत्यु का आगमन भी उसे संतापित नहीं कर पाता है। [३] भरत चक्रवर्ती (जैन) महाराज भरत इस कालचक्र के प्रथम चक्रवर्ती थे। अपरिसीम सुख-साधनों और भोग-विलास के मध्य रहकर भी वे कीचड़ में कमल जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता/356
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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