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________________ देवेन्द्र नमि-राजर्षि की दृढ़ता, सरलता, निश्छलता वह निर्विकारता से अत्यन्त प्रभावित हुए और राजर्षि को वन्दना कर देवलोक लौट गया। राजा नमि ने मुनित्व को साधा और संयम-तप पर क्रमशः अग्रसर होते हुए सिद्ध-बुद्ध-मुक्त अवस्था प्राप्त की। [द्रष्टव्यः उत्तराध्ययन, नवम अध्ययन तथा उसकी सुखबोध टीका, बौद्ध परम्परा में भी कुम्भकार जातक- जातक सं.408 में कुछ परिवर्तन के साथ यह कथा उपलब्ध है।] [२] महाराज जनक (वैदिक) मिथिला नगरी के राजा जनक आत्मज्ञानी थे। राजकाज में लीन रहते हुए भी वे ब्रह्मसुख में लीन रहते थे। इसीलिए वे 'विदेह' कहलाते थे। एकदा महर्षि वेदव्यास मिथिला आए। वे प्रतिदिन सत्संग करते थे। अनेक ऋषि और महाराज जनक प्रतिदिन उक्त सत्संग में उपस्थित होते थे। एक दिन सत्संग का निर्धारित समय होने पर भी सत्संग सभा में जनक नहीं पहुंचे। महर्षि वेदव्यास जनक की प्रतीक्षा करते रहे। शिष्य ऋषियों ने महर्षि से सत्संग प्रारंभ करने का निवेदन किया। लेकिन महर्षि ने जनक के आने तक प्रतीक्षा करने को कहा। महर्षि की बात सुनकर श्रोता ऋषियों के अधरों पर व्यंग्यात्मक मुस्कान उभर आई। उनकी मुस्कान में स्पष्ट कटाक्ष था कि जनक राजा हैं। इसलिए महर्षि उनसे दबते हैं। ऋषियों की व्यंग्यात्मक मुस्कान से महर्षि वेदव्यास अपरिचित न थे। कुछ समय पश्चात् जनक सत्संग सभा में उपस्थित हुए। सत्संग प्रारंभ हो गया। महर्षि शिष्य ऋषियों को जनक की श्रेष्ठता दिखाना चाहते थे। उन्होंने अपने योगबल से मिथिला नगरी में आग लगा दी। अकस्मात् भड़की इस आग से चतुर्दिक त्राहि-त्राहि मच गई। राजसेवक दौड़ते हुए जनक के पास पहुंचे और बोले-"राजन्! आपकी नगरी में आग लग गई है। उठिए! नगर-रक्षा का उपाय कीजिए।" "लगने दो।' जनक बोले- "आग का काम ही लगना है।" यह कहकर जनक अविचल बने सत्संग में तल्लीन रहे। कुछ देर के बाद द्वितीय स्खण्ड 355
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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