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________________ यह घटना राजा नमि के लिए भावी निःश्रेयस का निमित्त बनी। इस घटना ने राजा नमि की विचारधारा को मंगलमय दिशा की ओर मोड़ दिया। वह सोचने लगा 'निश्चय ही जहां 'एक' है, वहां पूर्ण शान्ति है, और जहां अनेक हैं वहां संघर्ष है, दुःख है, पीड़ा है।' धन, परिवार आदि से आत्मा की एकता बाधित होकर अनेकता का वातावरण बनता है और यही संघर्ष एवं दुःख व पीड़ा का कारण बनता है। परम सुख तभी प्राप्त हो सकता है जब व्यक्ति सांसारिक अनेकता को छोड़कर, मात्र आत्म-भाव के एकत्व में सुस्थिर हो जाए। इसी विवेकमूल वैराग्य की उदात्त जागृति से राजा नमि के भावों में प्रशस्तता क्रमशः बढ़ती गई और उसे पूर्वजन्म की स्मृति हो आई। जन्म और मृत्यु की क्रमिक परम्परा की वास्तविकता उन्हें हृदयंगम हो गई और इस परम्परा से मुक्ति पाने के लिए संयम मार्ग को ही उन्होंने अमोघ उपाय जाना । उन्होंने तत्क्षण समस्त राज्य-वैभव को छोड़कर प्रव्रजित होने का निर्णय किया। समस्त मिथिला राज्य शोकाकुल हो गया। राजा नमि परिवार-अन्तःपुर और प्रजा-जन के करुण आवाहन की उपेक्षा कर संयममार्ग पर अग्रसर हो गए। राजर्षि के वैराग्य की खबर देवलोक तक पहंची। देवेन्द्र स्वयं उत्सुकतावश एक ब्राह्मण का रूप धारण कर उनके सामने उपस्थित हुए। देवेन्द्र ने अनेक युक्तियों से नमि राजर्षि को सांसारिक उत्तरदायित्वों की ओर लौटाने का प्रयत्न किया किन्तु राजर्षि ने अपने युक्तियुक्त उत्तरों से अपने वैराग्य-मार्ग की ही श्रेयस्करता को सिद्ध किया। देवेन्द्र ने मिथिला नगरी की दयनीय दशा की ओर संकेत किया-"राजर्षि! देखिए! आपका राजभवन जल रहा है। अपने अन्तःपुर की दयनीय स्थिति को तो देखें। राज-धर्म के उत्तरदायित्व से मुख मोड़कर जाना ठीक नहीं। अपने राज्य की सुख-शान्ति के लिए अपने निर्णय पर विचार करें।" राजर्षि नमि का स्पष्ट उत्तर था- “समस्त मिथिला नगरी के जलने में मेरा कुछ नहीं जल रहा है। मैंने अकिंचनता- अपरिग्रहता को धारण किया है, अब मेरा कुछ नहीं है, न मिथिला और न ही अन्तःपुर । मैं इस अकिंचनता में सुखी हूं। मेरे लिए अब न कोई वस्तु प्रिय और न ही अप्रिय । सांसारिक काम-भोग दुर्गति में ले जाते हैं और जन्म-मृत्यु की परम्परा को बढाते हैं।" जैन धर्म पदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता/35405
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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