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अधिक प्रसिद्ध उदाहरण माने जाते हैं। महाभारत में राजा जनक की (माण्डव्य ऋषि के प्रति) यह उक्ति मननीय है जिसमें उनकी पूर्ण अनासक्ति के दर्शन होते हैं- मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किंचन (महाभा. 12/276/4)। (अर्थात समस्त राजधानी) मिथिला आग में जल रही हो तो भी मेरा (मेरी आत्मा का) कुछ नहीं जल रहा होता| जैन परम्परा में नमि राजर्षि की भी (देवेन्द्र के प्रति) इसी प्रकार की उक्ति प्राप्त होती है- मिहिलाए डज्झमाणीए, न मे डज्झइ किंचण (उत्तरा. 9/14)। अर्थात् मिथिला के जलते रहने में, मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है।
बौद्ध परम्परा में भी उक्त गाथा का पाली रूप इस प्रकार प्राप्त होता है- मिथिलाय डह्यमानाय न मे किंचि अडह्यथाः (जातक अट्ठकथा245)।
उपर्युक्त समग्र मृत्यु-दर्शन के सत्य को हृदयंगम करने वाला व्यक्ति मृत्यु को अवश्यंभावी समझ कर, मानव-जीवन को मृत्यु से पहले ही सार्थक करने हेतु संयम के आत्मकल्याणकारी मार्ग पर अग्रसर हो जाता है। साथ ही, मृत्यु के भय से भी निर्मुक्त रहता है क्योंकि वह समझता है कि मृत्यु तो अगली यात्रा का एक पड़ाव है। मृत्यु-दर्शन की विस्मृति आसक्ति की जन्मदात्री है। सुख-साधनों की आसक्ति और उनके स्थैर्य की चिन्ता और यत्न मृत्यु की विस्मृति के क्षण में प्रगतिशील रहते हैं। मनुष्य इस सत्य को कि एक क्षण सर्वस्व छीन लेगी यदि अपने आत्म-पट पर अंकित कर ले तो उसके जीवन के अधिकांश संघर्ष समाप्त हो जाएं। उसके जीवन के बहुत से दुःख स्वतः छंट जाएं। एक दार्शनिक ने कहा- “ सोते समय मौत को सिरहाने एवं जागते समय सामने खड़ी समझ कर काम करो। जीवन से मृत्यु का यह नैकट्य साक्षात् तुम्हें पापमुक्त बना देगा।"
जीवन में प्रतिक्षण मृत्यु का दर्शन मनुष्य को अनासक्तयोगी बना देता है। वह जलकमलवत् बन जाता है। उसे सांसारिक आकर्षण आकर्षित नहीं कर पाते हैं। वह संसार के समस्त कार्य करता हुआ भी अकर्ता बना रहता है। वह संसार में होता है परन्तु संसार उसके भीतर नहीं होता है। वह उन्मुक्त गान गाता है
दुनियां में रहता हूं तलबगार नहीं हूं। बाजार से गुज़रा हूं खरीदार नहीं हूं।
जनार्ग कासादिक धर्म की सारकृतिक एकता 352)