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________________ (बृहदा. 3/2/10) । अर्थात् यह जो कुछ है, वह सब मृत्यु का अन्न (खाद्य) है। जैन परम्परा में भी मृत्यु की अनिवार्यता के सत्य को बार-बार उद्घोषित किया गया है: जहेह सीहो व मियं गहाय, मधू नरं नेइ हु अन्तकाले। न तस्स माया व पिया व भाया, कालम्मि तम्मिंऽसहरा भवंति॥ (उत्तरा. 13/22) -जिस प्रकार सिंह हिरण को पकड़ कर ले जाता है, उसी तरह अन्त समय में मृत्यु भी मनुष्य को उठा ले जाती है। उस समय, माता-पिता, भाई आदि कोई भी उसके दुःख को बांट नहीं सकते, परलोक में उसके साथ नहीं जाते। सेणे जहा वट्टयं हरे, एवं आयुखयंमि तुट्टई॥ (सूत्रकृ. 1/2/1/2) - जैसे बाज़ चिड़िया पर झपट कर उसे उठा ले जाता है, वैसे ही आयुष्य पूर्ण होने पर काल पकड़ कर ले जाता है। बौद्ध परम्परा में भी उक्त सत्य का पूर्णतया समर्थन किया हुआ दृष्टिगोचर होता है- एवमब्भाहतो लोको मच्चुना च जराय च (सुत्तनिपात- 34/8)। अर्थात् समस्त लोक मृत्यु व वृद्धावस्था से आक्रान्त है। सुत्तं गामं महोघो व मच्चु आदाय गच्छति (धम्मपद- 4/4)। अर्थात् जैसे जल-प्रवाह सोते हुए पूरे गांव को दहा कर ले जाता है, वैसे ही मृत्यु (आसक्त) व्यक्ति को लेकर चली जाती है। चूंकि जीवन प्रकाश है और मृत्यु अन्धकार है, इसलिए प्रकाश का पुजारी मनुष्य-जीवन से प्रेम और मृत्यु से घृणा करता है। वह मृत्यु से भयभीत रहता है। मृत्यु से भागना और सदा-सर्वदा के लिए वह परिमुक्त होना चाहता है। किन्तु मृत्यु तो अवश्यंभावी है, उससे कोई बच नहीं पाता। भारतीय मनीषियों ने मृत्यु-दर्शन के एक अन्य सिद्धान्त को प्रतिपादित कर लोगों को मृत्यु-भय से मुक्त होने का मार्ग-दिखाया। वह सिद्धान्त था'आत्मा कभी नहीं मरती। मृत्यु प्राणी के देह आत्मा को अलग करती है। मृत्यु के अनन्तर-प्राणी की आत्मा नया जन्म धारण कर नया देह धारण करती है। उसके नये जन्म की परिस्थितियों का निर्माण, प्राणी द्वारा किये गये कर्मों के अनुरूप, होता है। वैदिक परम्परा की गीता में स्पष्ट कहा गया जैन धर्म में दिक धर्म की सांस्कृतिक एकता 3500
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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