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________________ 00 महापद्म ने नमुचि के लिए मृत्युदण्ड की घोषणा की। लेकिन करुणासिन्धु विष्णुमुनि ने उसके प्राणों की रक्षा की। राजा ने उसे अपमानित करके देश-निकाला दे दिया। मुनियों की रक्षा का वह दिन रक्षा-दिवसरक्षाबंधन के त्यौहार के रूप में आज भी भारतवर्ष में हर्षोल्लास-सहित मनाया जाता है। [त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित मे] [२] दैत्यराज बलि और वामन अवतार (वैदिक) बलि का जन्म दैत्यकुल में हुआ था। दैत्यकुल में उत्पन्न बलि में अपने पितामह भक्त-श्रेष्ठ प्रह्लाद के अनेक गुण जन्मजात थे। वे परम ब्राह्मणभक्त और उदार हृदय के स्वामी थे। अपने पिता विरोचन के पश्चात् बलि दैत्येश्वर बने। महर्षि दुर्वासा के शाप से इन्द्र की श्री नष्ट हो गई। दैत्येश्वर बलि के लिए यह उपयुक्त अवसर था। उसने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया। देवता पराजित हुए। बलि का स्वर्ग पर अधिकार हो गया। देवों ने भगवान् विष्णु से सहायता मांगी। भगवान् ने इन्द्र को बलि से सन्धि करने का निर्देश दिया। सन्धि के पश्चात् भगवान् के निर्देश पर देव और दैत्यों ने मिलकर क्षीरसागर का मन्थन किया। अन्य अनेक रत्नों के अतिरिक्त, विष और अमृत भी सागर-मन्थन से उत्पन्न हुए। विषपान महादेव ने किया। - अमृत-कलश को लेकर दैत्य उन्मत्त हो उठे। भगवान् ने मोहिनी रूप धारण करके अमृत कलश दैत्यों से लेकर देवों को दे दिया। सत्य से परिचित होकर दैत्य क्रोधित हो उठे। पुनः भयंकर देवासुर-संग्राम छिड़ गया। भगवत्कृपा और अमृत के प्रभाव से देवताओं ने दैत्यों को घोर पराजय दी। दैत्य भाग गए। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने संजीवनी शक्ति से मृत और घायल असुरों को स्वस्थ बनाया। पराजय से पीड़ित बलि ने शुक्राचार्य के दिशानिर्देशन में विश्वजित् यज्ञ किया। अग्नि ने प्रसन्न होकर बलि को अक्षय और अकाट्य द्वितीय खण्ड/345
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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