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________________ समय पर उसने कूणिक को फटकारा । उसे बताया कि उसके पिता उस से कितना प्रेम करते थे । कूणिक पश्चात्ताप में डूब गया । लौहदण्ड लेकर वह पिता के पिंजरे को तोड़ने चला । कूणिक को लौहदण्ड लिए आते देखकर श्रेणिक ने समझा कि आज वह अपने पुत्र के हाथों मारा जाएगा। उन्होंने पुत्र के हाथों मरने की अपेक्षा आत्महत्या को उचित समझा। उन्होंने हीरे की अंगूठी निगल कर प्राण त्याग दिए । राज्य-प्राप्ति के लिए खून की नदियां बहाई जाती रही हैं। भाई-भाई का शत्रु हो जाता है । पुत्र पिता का हन्ता हो जाता है । कृणिक का प्रसंग इसी सत्य का साक्ष्य है । बादशाह औरंगजेब ऐसा ही एक प्रसंग मुगल इतिहास में घटित हुआ। मुगल बादशाह शाहजहां के पुत्र का नाम औरंगजेब था । औरंगजेब के तीन अन्य भाई थे, जिनके नाम थे- दारा, सूजा और मुराद । औरंगजेब बाल्यकाल से ही भारत का बादशाह बनने का सपना देखा करता । युवावस्था में उसने सोचा कि कहीं उसके पिता उसे उत्तराधिकार न दें, उसने कपट का आश्रय लिया। उसने मुराद को अपने साथ मिलाकर अपने पिता शाहजहां से राजसिंहासन छीन लिया। इतना ही नहीं, उसने अपने पिता को हथकड़ियों-बेड़ियों में जकड़कर कालकोठरी में कैद कर दिया। भाई दारा के विरोध करने पर औरंगजेब ने उसे आगरा में एक चौक में चिनवा दिया । बांद में उसने अपने शेष दोनों भाइयों को भी धोखा दिया । औरंगजेब के लोभ और पितृविद्वेष को दिखाने वाला एक प्रसंग इस प्रकार हैशाहजहां को कारावास में प्रत्येक वस्तु सीमित मात्रा में दी जाती थी। पानी पीने के लिए उसे एक घड़ा दिया गया था। अकस्मात् एक दिन वह घड़ा फूट गया। शाहजहां ने कारावास के निरीक्षक से एक अन्य घड़ा लाने के लिए कहा। निरीक्षक को औरंगजेब का आदेश था कि उसके पिता को कोई भी वस्तु देने से पहले उसकी अनुमति प्राप्त करे। निरीक्षक ने औरंगजेब से शाहजहां की घड़ा मांगने की बात कही। औरंगजेब चिल्लाकर बोला- वह प्रतिदिन घड़े तोड़ देता है। उसे कह दो कि घड़ा नहीं मिलेगा । निरीक्षक से अपने पुत्र औरंगजेब का उत्तर सुनकर शाहजहां का हृदय हाहाकार कर उठा। उसने कहा- "वे हिन्दू, जिन्हें मैंने द्वितीय श्रेणी का नागरिक माना था, वे हिन्दू कितने श्रेष्ठ हैं जो अपने पिता के मरने के बाद उसका श्राद्ध करते हैं और यह अपने जीवित बाप को भी एक घड़ा नहीं दे रहा है।" कहकर वृद्ध - विवश, बन्धनों में बंधा शाहजहां रो पड़ा था। संसारस्थ जन पुत्रों से सुख की आशा करते हैं लेकिन संसार की विचित्रता है कितनी ही बार पुत्र, कुपुत्र बनकर घोर दुःख का कारण बन जाते हैं। द्वितीय खण्ड 337
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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