SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 361
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वह शीघ्र ही श्रेणिक के हृदय की साम्राज्ञी बन बैठी और पटराणी बन गई। बाद में सुज्येष्ठा साध्वी बन गई। श्रेणिक और चेलना में गहरा अनुराग था। चेलना गर्भवती हुई। गर्भकाल में उसे एक विचित्र और निकृष्ट दोहद उत्पन्न हुआ। उसे अपने पति के हृदय का मांस खाने का दोहद उठा। उसने यह इच्छा छिपा कर रखी । फलस्वरूप वह कृश होने लगी। श्रेणिक ने चेलना के हृदय की इच्छा जान ली। विकट समस्या थी। इस समस्या का समाधान भी अभय की बुद्धि से ही संभव हो पाया। चेलना ने पुत्र को जन्म दिया। उसे अपने पुत्र से घृणा हो गई कि जो पुत्र गर्भ में ही अपने पिता का कलेजा खाना चाहता हो, वह भविष्य में न जाने क्या कुछ अनर्थ कर सकता है। यह सोचकर उनसे अपने नवजात शिशु को उकरड़ी पर फिंकवा दिया। उकरड़ी पर पड़े इस नवजात शिशु की एक अंगुली मुर्गे ने खा ली। संयोगतः श्रेणिक भ्रमण को निकले तो उन्हें वह शिशु मिल गया। बाद में भेद खुलने पर श्रेणिक को सत्य घटना ज्ञात हुई। पितृहृदय श्रेणिक ने पुत्र को पुनः पुनः कण्ठ से लगाया। मुर्गे द्वारा चबाई अंगुली में पीप पड़ गई थी। श्रेणिक अपने मुंह से उस अंगुली की पीप को चूस कर बाहर निकालते थे। अंगुली कुछ छोटी रह गई। शिशु का नाम कूणिक पड़ गया। अपरिसीम लाड़-प्यार से कूणिक युवा हुआ। उसका विवाह कर दिया गया। तब तक अभयकुमार दीक्षित हो चुके थे। कूणिक राज्यपिपासा से व्याकुल था । वह सोचने लगा- मेरे पिता तो बूढ़े हो चुके हैं फिर भी सिंहासन से चिपके हैं। राज्यलक्ष्मी के उपभोग का समय तो यौवन काल ही होता है। पिता यदि सिंहासन नहीं छोड़ेंगे तो मैं बलात् उन्हें इसके लिए विवश कर दूंगा। राज्य-प्राप्ति की उसकी लालसा भड़क उठी। उसने कालकुमार आदि अपने भाईयों को अपने साथ मिलाया और अपने पिता को कारावास में डाल दिया। सारे राज्य में आतंक छा गया। कूणिक से लोग घृणा करने लगे। लौह पिंजरे में बन्द श्रेणिक से न तो कोई मिल सकता था और न ही उन्हें भोजन दिया जाता था। चेलना का जीवन अश्रुसागर में डूब गया था। एक दिन उपयुक्त जन धग पदिक धर्म की सारकतिक एकता 336
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy