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संगणिमित्तं कुद्धो कलहं रोलं करिज्ज वेरं वा। पहणेज्ज व मारेज्ज व मरिजेज्ज व तह य हम्मेज्ज ॥
(भगवती आराधना, 1147) -अर्थात परिग्रह व लोभ-आसक्ति के कारण व्यक्ति क्रोधी हो जाता है, लड़ाई-झगड़ा करता है, विवाद करता है, वैर-विरोध व मारपीट तक कर बैठता है, (कभी-कभी) दूसरों द्वारा मारा-पीटा जाता है या मर जाता है।
उपर्युक्त निरूपण के आलोक में लोभी पुत्र की गतिविधियों का हम अनुमान लगा सकते हैं। लोभी पुत्र को अपने पिता, माता, गुरुजनों तक से दुर्व्यवहार, वैर-विरोध आदि करने में कोई संकोच नहीं होता और वह अपने विनाश को ही आमंत्रित करता है। इसलिए कहा गया है- लोहो सव्वविणासणो (दशवैकालिक- 8/38), अर्थात् लोभ समस्त सद्गुणों को नष्ट कर देता है। लोभान्ध व्यक्ति अपने उद्देश्य की पूर्ति में किसी पारिवारिक व्यक्ति को भी यदि बाधक मानता है तो वह उसकी हत्या तक करने के लिए तत्पर हो जाता है:- पासम्मि बहिणि-मायं सिसु पि हणेइ कोहंधो (वसुनन्दिश्रावकाचार, 67), अर्थात् क्रोधान्ध व्यक्ति निकटवर्ती माता, बहिन एवं मासूम बच्चों तक को मारने लग जाता है।
वैदिक परम्परा में भी लोभ के दुष्परिणामों को विविध रूपों में व्याख्यायित किया गया है। यद्यपि वैदिक संस्कृति में 'पितृदेवो भव' (तैत्ति. उप. 1/11)-पिता को देवता मानने की परम्परा रही है, किन्तु क्रोधी पुत्र पिता आदि गुरूजनों तक को मारने पर कटिबद्ध हो जाता है:- क्रुद्धो हि संमूढः सन् गुरुम् आक्रोशति (गीता-शांकरभाष्य, 2/63)। क्रुद्धः पापं न कुर्याद् कः, क्रुद्धो हन्याद् गुरूनपि (वाल्मीकि रामायण, 5/55/ 4)-अर्थात् क्रुद्ध व्यक्ति कौन-सा पाप नहीं करता । वह पिता आदि गुरु-जनों पर आक्रोश करता है, उन्हें मार भी देता है। एक अन्य साहित्यकार ने लोभ के कुत्सित रूप को इस प्रकार अभिव्यक्त किया है:
लोभोऽतीव च पापिष्ठस्तेन को न वशीकृतः। किं न कुर्यात् तदाविष्ट: पापं पार्थिवसत्तमः॥ पितरं मातरं भ्रातृन गुरुन् स्वजनबान्धवान्। हन्ति लोभसमाविष्टो जनो नात्र विचारणा ॥
जैन धर्मांतदिक धर्म की सास्कृतिक एकता 334)