________________
पूरा करने के लिए उन्होंने राज-सिंहासन से च्युत होना श्रेयस्कर समझा और वनवास स्वीकार किया।
किन्तु लोभ, तृष्णा आदि मनोविकारों से ग्रस्त व्यक्ति पारिवारिक आदर्शों का उल्लंघन करता ही है। ऐसे कुछ कुपुत्रों के उदाहरण भी हैं जो लोभ-ग्रस्त होकर पिता तक के प्रति दुर्व्यवहार करने से नहीं चूके। लोभ के दुर्भाव ने उनमें क्रूरता, निर्दयता, माया आदि दुष्प्रवृत्तियों को संवर्द्धित किया और उन्हें पुत्र से कुपुत्र बना दिया।
नैतिक-अनैतिक विचार से शून्य होकर भौतिक सम्पत्ति निरन्तर संग्रहीत करते रहने की प्रवृत्ति का कारण है- लोभ। नियम, मर्यादा और विवेक से आंख मूंद कर प्राप्तव्य पर समस्त प्रयत्नों को केन्द्रित कर देना 'लोभ' है। पदार्थ में सुख मानने और उसे खोजने में अपनी सारी शक्तियों को नियोजन कर देना 'लोभ' है।
मनुष्य का मन सुखाकांक्षी है। मन स्वयं पौद्गलिक है अतः उसकी सोच पुद्गल (भौतिक पदार्थ) तक ही दौड़ सकती है। वह पुद्गल से सुख प्राप्त करना चाहता है। मंजिल प्राप्ति के लिए उसे धन आश्रयभूत प्रतीत होता है। धन को जुटाने के लिए वह अपनी सारी ऊर्जा को लगा देता है। वह धन को 'काम' पूर्ति का साधन- एकमात्र साधन मानता है, और काम को आनन्द-परमानन्द का स्रोत समझता है।
लोभ के विषय में एक बात विशेष है कि वह सदैव अपूर्ण रहता है। मनुष्य लाख-लाख प्रयत्न करके भी लोभ को सम्पूर्ति नहीं दे पाता है। वह लक्ष्यविहीन है। लोभ के स्वरूप का दिग्दर्शन भगवान् महावीर ने मनुष्य को यों कराया थाजहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई।
(उत्तरा. सू. 8/17) जैसे-जैसे लाभ-सम्पन्नता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे लोभ बढ़ता चला जाता है। लाभ लोभ की पूर्ति नहीं करता, अपितु उसे और अधिक बढ़ा देता है। जैन परम्परा में लोभ और परिग्रह का घनिष्ठ सम्बन्ध माना गया है। परिग्रह-वृत्ति एक महान वृक्ष है तो लोभ उसका एक मोटा तना है (द्रष्टव्यः प्रश्नव्याकरण सूत्र, 1/5 सू. 93)।परिग्रह-वृत्ति मनुष्य को क्रूर, निर्दय बना देती है। जैन साहित्य में इस प्रसंग में कहा गया है:
सिपीरा राण्ड, 333