SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौदह वर्षों के पश्चात् राम अयोध्या लौटे । पुनः दो भाइयों का मिलन हुआ। राम अयोध्या के राजा बने । भरत ने जीवन भर उनके चरणों की सेवा करके परमानन्द अनुभव किया। [३] भ्रातृभक्त श्री लक्ष्मण विदिक) राम के चरणों में लक्ष्मण का अद्भुत अनुराग जगत्प्रसिद्ध है। भाई के लिए सर्वस्व बलिदान करने वाले लक्ष्मण की महिमा भी अद्भुत है। राम वनवास जाने लगे तो लक्ष्मण का हृदय व्याकुल हो उठा। उन्होंने माता सुमित्रा से भाई के साथ जाने की अनुमति मांगी। माता सुमित्रा ने लक्ष्मण को आज्ञा नहीं दी। लक्ष्मण दुःखी होकर बोले- "मां! आज कष्ट काल में क्या तुम्हारी दृष्टि भी राम और लक्ष्मण में स्वत्व और परत्व का भेद देखने लगी? तुमने तो सदैव राम और लक्ष्मण को दो देह और एक प्राण माना है। क्या लक्ष्मण के अयोध्या में रह जाने पर वह एक प्राण दो खण्डों में नहीं बंट जाएगा?" ___ "तुम्हारा कथन अक्षरशः सत्य है, लक्ष्मण!” माता सुमित्रा बोली- “तुम और राम मेरी दायीं और बायीं आंख हो।मैं नहीं चाहती कि तुम दोनों भाई दूर रहो। लेकिन फिर भी मैं तुम्हें अनुमति नहीं दे पा रही हूं।" ____ "ऐसी कौन सी विवशता है, माता!" लक्ष्मण ने अधीर होकर पूछा- "अपनी विवशता स्पष्ट कीजिए।" “लक्ष्मण! तुम प्रतिज्ञा लो कि राम को अपने पिता दशरथ के समान, सीता को मेरे समान और वन की भयानक अटवियों को अयोध्या की गलियों के समान समझोगे।' सुमित्रा ने गंभीर होकर कहा- “यदि ये प्रतिज्ञाएं तुम्हें स्वीकार हैं तो तुम अपने अग्रज के साथ चले जाओ।" । “मुझे स्वीकार है माता!" लक्ष्मण हर्षाप्लावित हो उठे। बोले"भ्रातप्रेम की ये कसौटियां बनाकर आपने मुझ पर महान् उपकार किया है।" जान की सरकणीक एकता 3200
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy