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लक्ष्मण राम का अनुगमन करते हुए वन को चले गए। उन्होंने सदैव राम को पितृतुल्य माना, सीता को मातृतुल्य स्थान दिया और वन की अटवियों को अयोध्या की गलियां समझा।
भाई के लिए लक्ष्मण ने अपने सर्व-सुखों का त्याग कर दिया था। वे जंगल में अपने हाथों से पर्णकुटी बनाते, खाने के लिए फल-फूलों का प्रबन्ध करते और रात्री में जाग कर पहरा देते थे। भाई के प्रति उनके हृदय में कितना सम्मान था- सन्त तुलसीदास जी के शब्दों मेंसीय राम पद अंक बराएं। लखन चलहिं मग दाहिन लाएं।
राम के पगचिन्हों पर कहीं उनके पैर न पड़ जाएं-इसके लिए लक्ष्मण अनुगमन करते हुए भी सतत सावधान रहते थे। कष्ट के समय लक्ष्मण सदैव राम के आगे रहे। धन्य है लक्ष्मण का भ्रातृत्व! भ्रातृभक्ति! भ्रातृचरणानुराग!
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उपर्युक्त तीन समान कथानकों के माध्यम से यहां भ्रातृभक्ति का संकथन किया गया है। प्रथम कथानक में जैन परम्परा के वर्धमान की भ्रातभक्ति का वर्णन है।सर्वज्ञता के शिखर के निकट खड़े वर्धमान अपने भाई नन्दीवर्धन की प्रसन्नता के लिए अपनी अभिनिष्क्रमण की इच्छा को अशेष कर देते हैं।
वैदिक परम्परा के द्वितीय और तृतीय कथानकों में भरत और लक्ष्मण की राम के प्रति अटूट भक्ति मुखरित हुई है। दोनों भाई अपने अग्रज राम के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर देते हैं। जैन और वैदिक धाराओं से चयनित इन पुष्पों की सुगंध में कितना साम्य है, यही यहां मननीय है।
द्वितीय साहु 331