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राज्य के लिए साधारण जन धर्म-कर्म, मान-मर्यादा और मधुर रिश्तों को विस्मृत कर देते हैं। लेकिन उसी राज्य को अनायास पाकर भी भरत उसे अस्वीकार कर देते हैं। राम के वनगमन का कारण वे स्वयं को मानते हैं। पिता का औचंदैहिक कृत्य करके वे राम को अयोध्या लौटा लाने के लिए चले। उनके साथ सैनिक और रथ भी चल रहे थे। लेकिन भरत पैदल चलते हैं। नग्न पैर चलने से उनके कदमों में फफोले पड़ गए, लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की। मार्ग में चलते हुए जब वे राम के चरण-चिन्ह भूमि पर अंकित देखते हैं तो उस रज को उठाकर अपने सिर पर धारण कर लेते हैं। सन्त तुलसीदास के शब्दों में
हरषहिं निरखि राम पद अंका। मानहुँ पारसु पायउ रंका॥ रज सिर धरि हियं नयनहिं लावहिं।
रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं॥
चित्रकूट में श्री राम और भरत का मिलन होता है। भरत भाई राम के चरणों पर मस्तक रख कर उन्हें अयोध्या लौटने के लिए मनाते हैं। राम भाई भरत को कण्ठ से लगा लेते हैं। दो भाइयों का यह अपूर्व मिलन देखने के लिए तब इन्द्रादि देव आकाश में उतर आए थे।
अयोध्या के राज्य को राम और भरत दोनों अस्वीकार कर देते हैं। जब कोई भी निर्णय नहीं हो पाता तो राम भरत की सन्तुष्टि के लिए उन्हें अपनी चरण-पादुकाएं दे देते हैं। राम की चरण-पादुकाओं को मस्तक पर धारण करके भरत अयोध्या लौटते हैं। उन्होंने उन पादुकाओं को सिंहासन पर आसीन किया और स्वयंसेवक की भांति राज-काज देखने लगे।
राम जंगल में धरा पर सोएंगे- इसलिए भरत ने भी समस्त राजसी सुखों को परित्याग कर दिया। अयोध्या से बाहर नन्दिग्राम में भूमि पर कुश का आसन लगाकर भरत रात्री बिताते। निरन्तर चौदह वर्ष तक वे लेटे नहीं। बैठे-बैठे ही भ्रातृ-याद में निमग्न रहते। भरत को विश्वास था कि चौदह वर्ष की अवधि बिताने से पहले ही, उनके प्राण उनका साथ छोड़ देंगे। और यदि ऐसा नहीं होता है तो -
बीतें अवधि रहहिं जो प्राना। अधम कवन जग मोहि समाना॥
लिपीय खण्ड 329