SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 353
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पल-पल, घड़ी-घड़ी समय सरकने लगा। दिन के बाद रात और रात के बाद दिन क्रमशः विगत होने लगे। मास बीते! ऋतएं बीतीं! नन्दीवर्धन ने देखा कि वर्धमान तो घर में है ही नहीं। वर्धमान की देह तो महलों में है, पर उनकी आत्मा उन्मुक्त हो चुकी है। वर्धमान के रूप में उन्हें घोर-घने जंगलों में एकान्त साधनारत महासाधक के दर्शन हुए। नन्दीवर्धन की आत्मा पुकार उठी "नन्दीवर्धन! बन्धन मत बन इस निर्बन्ध के लिए। तू किसे रोकना चाहता है? भाई को या भाई की देह को? भाई तो सदाकाल के लिए अप्रतिबन्ध हो चुके हैं। तेरे मान के कारण उसकी देह अवश्य महलों में है।' नन्दीवर्धन ने आत्मा की आवाज सुनी और वर्धमान के पास जाकर बोले- "वर्धमान! एक भाई के लिए तुमने अपने लक्ष्य को दो वर्ष पीछे धकेल दिया है। भाई के प्रति तुम जैसे भाई का यह भक्तिभाव सदासदा के लिए पूजा का विषय बन गया है।" “अब तुम स्वतंत्र हो! अपने मार्ग पर बढ़ो। अज्ञान और व्यथा की दशा में कसमसाते मानव-समाज को ज्ञान और सन्मार्ग का अमृत बांटो।' वर्धमान चल पड़े मानव से महामानव- नर से नारायणऔर आत्मा से परमात्मा होने । कष्टकवलितों- पतितों- संतापितों- पथभूले जनों के नाथ होने । सर्वज्ञता के शिखर के निकट खड़े एक भाई की एक संसारस्थ भाई के प्रति घटी यह भ्रातृभक्ति; भ्रातृभक्ति के आदर्श का उन्मुक्त कण्ठ से यशोगान करती है। [त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित से] [२] भ्रातृप्रेम के पूर्ण प्रतीक- भरत (वैदिक) हजारों वर्षों से भारतवर्ष में जब-जब भ्रातृप्रेम की चर्चाएं हुई हैं, तब-तब भ्रातृ-भक्त भरत का नाम केन्द्र में रहा है। भरत के भ्रातृ-प्रेम ने भगवद्भक्ति की पराकाष्ठाओं को छूआ था। उनकी भक्ति राम के चरणों में अनन्य भाव से जुड़ी थी। रामचरितमानस के अयोध्या काण्ड में भरत का भ्रातृ-प्रेम महामहिमा के साथ प्रगट हुआ है। p जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता/328)
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy