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संत-संगति और ईश-भक्ति के कारण उसे अनेक कष्ट सहन करने पड़े। उस पर लांछन लगाए गए। उसे विष दिया गया। लेकिन प्रत्येक कष्ट के क्षण में उसकी प्रभु-प्रीति अविचल रही।
भक्तिमती मीरा का जन्म संवत् 1558-1559 में मारवाड़ प्रदेश के ग्राम कुड़की में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री रतन सिंह राठौड़ था जो मेड़ता के राव दूदाजी के चतुर्थ पुत्र थे। मीरा अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। उसे भरपूर लाड़-प्यार प्राप्त हुआ।
चंचलता बाल्यकाल का अभिन्न अंग होती है। लेकिन मीरा का चित्त चंचलताशून्य था। वह दस वर्ष की हुई। एक दिन एक साधु उनके घरपर आए। साधु के पास भगवान् श्रीकृष्ण की एक सुन्दर मूर्ति थी। मीरा की दृष्टि उस मूर्ति पर पड़ी। उसे वह बहुत प्रिय लगी। उसने आग्रह करके वह मूर्ति साधु से ले ली। साधु ने श्रीकृष्ण की महिमा और पूजा विधि समझाते हुए वह मूर्ति मीरा को अर्पित कर दी।
' मीरा श्रीकृष्ण की मूर्ति पाकर भाव-विभोर हो उठी। दिन-रात वह उसी की सार-संभाल, पूजा और अर्चना में तल्लीन रहने लगी। श्रीकृष्ण के चरणों से उसका अनुराग घनिष्ठ होता गया। अपने प्रियतम को गोद में लिए मीरा प्रसन्नता से नाच उठती। उसका हृदय गुनगुना उठता। उसके अधर हिलने लगते । वह तन्मय होकर गाने लगती। श्रीकृष्ण के प्रेमरस में पगे मीरा के पद सुनकर न केवल उसके माता-पिता, अपितु अन्य अनेक ग्रामवासी तथा साधु-संन्यासी भी भक्ति में झूमने लगते।
संवत् 1573 में मीरा का विवाह चित्तौड़ के सिसोदिया वंश में महाराजा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ सम्पन्न हुआ। श्रीकृष्ण की दीवानी मीरा ने फेरे लेते हुए अपने प्रियतम श्रीकृष्ण की मूर्ति को अपना पति स्वीकार किया। देह से वह भोजराज की पत्नी बनी, परन्तु मन से वह गिरिधर गोपाल की रानी बनी।
भोजराज धर्मनिष्ठ और साहित्यप्रेमी थे। प्रारंभ में उन्हें मीरा का श्रीकृष्ण-प्रेम अखरा । बाद में मीरा के हृदय की कोमलता और निश्छलता से वे परिचित हो गए। मीरा को भक्ति में डूबी गाते देखकर वे स्वयं भक्ति सागर में डुबकियां लगाने लगते।
मीरा को इस बात का कष्ट था कि वह अपने लौकिक पति
जैन धर्म परिकार्ग की सांस्कृतिक एकता 3200