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किन्तु जब इन सन्नारियों में से कुछ को ईश्वरीय भक्ति की लगन लग जाए तो वह पूज्य भक्तों के लिए भी आदर्श बन जाती है। वे अपने आराध्य देव व धर्म के प्रति पूर्णतः समर्पित हो जाती हैं और कोई भी प्रलोभन या तर्जना उन्हें अपने ध्येय से विमुख नहीं कर पाते । घोर से घोरतम संकट भी उन्हें अपने मार्ग से विचलित नहीं कर पाते। ऐसी भक्त सन्नारियों के नाम इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर अंकित हो जाते हैं।
जैन और वैदिक परम्परा से लिए गए दो कथानक यहां प्रस्तुत हैं जिनमें आध्यात्मिक समर्पण करने वाली सन्नारियों के जीवन-चरित निबद्ध हैं। जैन परम्परा की सोमा और वैदिक परम्परा की मीरा कृष्णभक्ति में समर्पित है तो जैन परम्परा की सोमा भी अपने धर्म की रक्षा हेतु पूर्णतः समर्पित है। देखिए, विष को अमृत में तथा विषधर सर्प को भी फूलमाला में रूपायित करने वाली दो महान् सन्नारियों के संक्षिप्त जीवनदर्शन! घोर संकट में भी उनकी अदम्य कष्टसहिष्णुता और अकम्प अडोलता को भी हृदयंगम करें।
[१] सोमा सती
(जैन)
प्राचीन समय की बात है। किसी नगर में धनगुप्त नाम के एक प्रसिद्ध श्रेष्ठी निवास करते थे। धनगुप्त की एक पुत्री थी। उस का नाम श्रीमती था। प्रेम से सभी उसे सोमा कहते थे। सोमा अद्वितीय रूपवती थी। रूप के साथ-साथ वह नारीसुलभ समस्त गुणों का कोष थी।
धनगुप्त सेठ श्रमणोपासक थे। घर में जिनत्व का रंग था। इसी जिनत्व के परिवेश में सोमा ने आंख खोली, पली और बढ़ी। महामंत्र नवकार और अरिहंत देव के प्रति उसमें कूट-कूट कर श्रद्धा भरी थी। यौवन के द्वार पर खड़ी सोमा का मन अपने इष्ट परमेष्ठी देव में ही रमा था। सांसारिक वासनाओं और विलासों में उसकी रूचि न थी। वह प्रातः और सायं-दोनों समय प्रतिदिन सामायिक करती और जिनेश्वर देव की स्तुति करती थी।
द्वितीय खण्ड 317