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________________ अहं भक्तपराधीनो, ह्यस्वतन्त्र इव द्विज। साधुभिस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः॥ (भागवतपुराण, 9/4/63) - भक्त सन्तों का अधिकार मेरे हृदय पर हो जाता है। मैं भक्तजनों का प्रेम-पात्र होता हुआ, उन भक्तों के अधीन व अस्वतंत्र जैसा हो जाता हूं। भगवान की भक्त-पराधीनता का कारण भक्तों के समर्पण भाव में ही निहित है। भक्त भगवान के सिवा किसी अन्य की महत्ता को नहीं स्वीकारता, उसके लिए भगवान् ही 'एक भरोसो एकबल, एक आस, विश्वास' हैं। जैन परम्परा में चूंकि परमेश्वर पूर्णतः 'वीतराग' होता है, इसलिए भक्त के पराधीन होना और उनकी रक्षा का उत्तरदायित्व वहन करना ईश्वर के लिए सम्भव नहीं माना जाता। अतः वहां यह समर्पण प्रारम्भिक स्थिति में आज्ञा-उपदेश के प्रति होता है। जैन आगम साहित्य में एक स्थल पर इस समर्पण का प्रारूप इस प्रकार व्यक्त किया गया हैचएज देहं न हु धम्मसासणं। (दशवैकालिक-चूर्णि-1/17) अर्थात् देह भले ही छूट जाए, किन्तु धर्म-शासन के प्रति आस्था कभी न हटे। जैन भक्त की दृष्टि में- न वीतरागात् परमस्ति दैवतम् (हेमचन्द्रकृत अयोगव्यवच्छेदिका, 28)होता है अर्थात् 'वीतराग' परमेश्वर से बढ कर कोई देवता या ईश्वर नहीं होता। यह उसकी अनन्य निष्ठा है। इसके कारण, परमेश्वर तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट धर्म के प्रति और उसकी आज्ञा के प्रति वह पूर्णतया समर्पित रहता है और उसी को अपनी जीवन-चर्या में क्रियात्मक रूप देना चाहता है। इस समर्पण-भाव को यदि हम देखना चाहें तो भारतीय सन्नारियों के जीवन-व्यवहार में देख सकते हैं। 'समर्पण' नारी का अद्भुत और अद्वितीय अलंकार होता है। अधिकांशतया उसका यह समर्पण अपने पति के प्रति होता है। वह पति के चरणों को ईश्वर के चरण मानकर स्वयं को अर्पित कर देती है। इसके लिए उसे भयानक कष्ट भी सहने पड़ें तो भी वह प्रसन्नचित्त से सहन कर लेती है। जैन धर्म एदिक धर्ग की सांस्कृतिक एकता 316)
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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