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________________ "लेकिन मुनि-मर्यादाएं मुझे ऐसा करने की अनुमति नहीं देती।" अरणक ने कहा। ___ "मुनि-मर्यादाएं!” महिला ने कहा- “युवक! मुनित्व की ज्वाला में इस सुकोमल देह को यों जला देना समझदारी नहीं है। छोड़िए इस जंजाल को। मेरा भवन और मेरा हृदय आपके श्रीचरणों में अर्पित है।" दुर्बल मन कष्ट के क्षण में तनिक-सा प्रलोभन पाकर फिसल जाता है। अरणक फिसल गए। वे गृहवासी हो गए। स्वीकृत नियम-मर्यादाओं को विस्मृत करके संसार में विलीन हो गए। . अरणक की माता साध्वी भद्रा मुनि-संघ में अपने पुत्र को न पाकर अधीर हो उठी। उसकी अधीरता इस रूप में बढ़ी कि वह यह भी भूल गई कि वह पंच-महाव्रतधारिणी साध्वी है। वह अपने पुत्र को खोजने के लिए चल दी। "अरणक! अरणक!” माता भद्रा की पुकार में क्रन्दन था। गली-गली में पागलों की भांति अपने पुत्र को पुकारती हुई वह घूम रही थी। दो दिन इसी दशा में व्यतीत हो गए। तृतीय दिन संयोगवश भद्रा उसी भवन के सामने से निकली। तब भी वह अपने पुत्र को पुकार रही थी। अरणक ने सुना । मातृस्वर पहचाना। ममता-भरी पुकार में छिपे क्रन्दन ने अरणक के खोए विश्वास को पुनर्जाग्रत कर दिया। महिला के प्रति रागयुक्त बन्धन को एक ही झटके में झटक कर वे उस महल से नीचे उतर आए। मातृचरणों में गिरकर क्षमा मांगते हुए बोले ___ "अब राग की विराग पर पुनः जय नहीं होगी। मां! राग की मूल सुकुमारता का आज से मैं सदा-सर्वदा के लिए त्याग करता हूं। तुम लौट चलो।" __माता से पुत्र प्रायश्चित्त करके शुद्ध हुए।मुनि-संघ में सम्मिलित हुए। सुकुमारता के त्याग के लिए अरणक मुनि ने स्वयं को सूर्य की आतापना में झोंक दिया। नीचे तप्त शिलायें और ऊपर जलती धूप । अतिताप से जैसे मोम पिघल जाता है ऐसे ही अरणक मुनि की देह जल उठी। पर वे मुनि शान्त रहे। देह का मोह उनके मन में जागृत नहीं हुआ। अन्त में देह विसर्जन कर मुनि ने परमगति को प्राप्त किया।[उत्तराध्ययन-टीका से] 0 द्वितीय रतण्ड/311
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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