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________________ आगम में कहा गया है- णिव्वेएण... सव्वविसएसु विरज्जइ, सिद्धिमग्गे पडिवन्नेव य हवइ (उत्तरा. सू. 29/3), अर्थात निर्वेद के कारण व्यक्ति विरक्त होता है और विरक्त होकर मुक्ति-मार्ग को अंगीकार करता है। निर्वेद या प्रायश्चित्त की स्थिति में व्यक्ति अपने अपराधों पर पछताता है, पुनः उन्हें न करने हेतु दृढप्रतिज्ञ होता है। इससे उसकी आत्मा स्वच्छ या शुद्ध होती है। आचार्य अकलंक के अनुसार प्रायश्चित्त शब्द की निरुक्ति ही है- प्रायः यानी पाप, चित्त यानी शुद्धि, अर्थात् जिस चिन्तन-प्रक्रिया से अपराधों की शुद्धि हो, वह 'प्रायश्चित्त' होता है (द्रष्टव्यः राजवार्तिक, 9/22/1) नियुक्तिकार का भी कथन है- पावं छिंदंति जम्हा पायाच्छित्तं ति भण्णते तेण (आवश्यक नियुक्ति, 1508)- अर्थात् पाप का छेदन करने के कारण 'प्रायश्चित्त' यह नामकरण किया गया है। भारतीय इतिहास में अनेकानेक ऐसे साधक हो गए हैं जो सांसारिक भोगों में आकण्ठ डूबे हुए थे, किन्तु ज्यों ही उन्हें यह भान हुआ कि कामभोगों में पड़कर किये गए कार्य पाप हैं, निन्दनीय हैं, दुर्गति में ढकेलने वाले हैं, तभी विरक्ति या वैराग्य उनमें प्रस्फुटित हो गया और वे 'प्रायश्चित्त' कर वीतरागता के मार्ग पर अग्रसर हो गए और उन्होंने अपना आत्मकल्याण साधा। जैन व वैदिक परम्पराओं से एक-एक कथानक का चयन कर यहां उन्हें प्रस्तुत किया जा रहा है, जिनमें साधकों ने प्रायश्चित्त कर सन्मार्गभ्रष्ट होने से स्वयं को बचाया और आत्म-कल्याण की उपलब्धि की। 'पश्चात्ताप' की महनीय भूमिका को ये कथानक स्पष्ट रूप से रेखांकित करने वाले हैं। [१] अरणक मुनि (जैन) तगरा नगरी के नगरसेठ का नाम दत्त था। उनकी पत्नी का नाम था भद्रा । भद्रा ने एक पुत्र को जन्म दिया। पुत्र के जन्मोत्सव पर अपूर्व खुशियां मनाईं गईं। नामकरण के दिन दत्त सेठ ने अपने पुत्र का नाम अरणक कुमार रखा। द्वितीय खण्ड/309
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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