SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कम्म, मुंचदि जीवो विरागसंपत्तो (समयसार, 150), अर्थात् रागयुक्त व्यक्ति कर्म बांधता है, जब कि वैराग्य या वीतरागता से मुक्त होता है। जैन आगम उत्तराध्ययन में कहा गया है- भोगी भमइ संसारे, अभोगी नावलिप्पई (उत्तरा. सू. 25/41), अथवा- ण लिप्पई तेण मुणी विरागो (उत्तरा. 32/78)। अर्थात् भोगासक्त व्यक्ति संसार में ही भ्रमण करता रहता है किन्तु भोग से विरत-विरक्त व्यक्ति कर्मों से लिप्त नहीं होता । बौद्ध परम्परा में भी इसी का समर्थन करते हुए कहा गया है- विरागा विमुच्चति (मज्झिमनिकाय, 3/20), अर्थात् विरक्ति से मुक्ति मिलती है। किन्तु जो व्यक्ति संसारिक राग में आकण्ठ निमग्न हो रहा होता है, वह वीतरागता या वैराग्य की ओर एकाएक अग्रसर हो- इसकी संभावना प्रायः नहीं होती। भारतीय मनीषियों ने इस पर चिन्तन करते हुए यह विचार अभिव्यक्त किया है कि जब रागी-भोगासक्त व्यक्ति को किसी निमित्त से यह विवेक जागृत हो जाय कि रागासक्ति से होने वाले पाप आदि कार्य अवश्यमेव गर्हित हैं, प्रतिष्ठा को, कीर्ति को नष्ट करने वाले हैं। इस स्थिति में व्यक्ति अपने पूर्वकृत कर्मों पर अनुताप करता है, निर्वेद-सम्पन्न होता है। इस अनुताप या निर्वेद को 'पश्चात्ताप' नाम से भी अभिहित किया गया है। महाभारत में कहा गया है कि यथा यथा मनस्तस्य दुष्कृतं.कर्म गर्हिते। तथा तथा शरीरं तु तेनाधर्मेण मुच्यते॥ ___(महाभारत-13/112/5) - जैसे-जैसे दुष्कृत के प्रति निन्दा का भाव पैदा होता है, वैसेवैसे उसका शरीर भी पाप करने से मुक्त (विरत) हो जाता है। और, महापातकवर्जं हि प्रायश्चित्तं विधीयते (महाभारत- 12/35/43), अर्थात् प्रायश्चित्त की स्थिति महापातक से रहित हो जाती है। उपर्युक्त निरूपण का आशय यह है कि वैराग्य से पूर्व निर्वेद, अनुताप या पश्चात्ताप की स्थिति होती है। बौद्ध परम्परा में इसी का समर्थन करते हुए कहा गया है- निव्विंदं विरजति विरागा, विरागा विमुच्चतीति (मज्झिमनिकाय, 1/32), अर्थात् निर्वेद से वैराग्य और वैराग्य से मुक्ति प्राप्त होती है। जैन परम्परा भी उपर्युक्त तथ्य का समर्थन करती है। जैन जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता/3080
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy