________________
परार्थ और परमार्थ आत्मबलिदान के दो ध्रुव ध्येय हैं। परार्थी और परमार्थी साधक हंसते-हंसते प्राणों का बलिदान कर देते हैं। उन्हें प्राणों से प्रिय प्रण और देह से प्रिय धर्म होता है।
महर्षि दधीचि ने राक्षसों के विनाश के लिए और देवताओं की रक्षा के लिए अपनी हड्डियों तक का दान कर दिया था। उन हड्डियों से इन्द्र ने वज्र बनाकर वृत्रासुर का वध किया था। इसी तरह स्कन्दक मुनि ने अपने धर्म के पालन के लिए सहज-शान्त स्थिर रहते हुए प्राणोत्सर्ग कर दिया था।
वैदिक पुराण साहित्य में उद्धृत महर्षि दधीचि का कथानक तथा जैन साहित्य से उद्धृत स्कंधक मुनि का कथानक- इन दोनों में शरीरदान अथवा आत्मबलिदान के निमित्त या प्रेरक कारण यद्यपि भिन्न-भिन्न हैं फिर भी इस भाव में साम्य है कि उन्हें अपनी देह के प्रति किंचित् भी आसक्ति नहीं थी। उन्होंने देह को परार्थ और परमार्थ का साधन मात्र माना था। अतः उन्होंने देह और देही को भिन्न समझा हीं नहीं, अनुभव भी किया और हंसते-हंसते . आत्मबलिदान कर दिया।
~ जेन धर्म एवं दिक धर्म की सांस्कृतिक एकता/306)